दांतों की कुछ समस्याएं जो पहले 40 पार में सुनने को मिलती थीं, वे कम उम्र में ही सामने आ रही हैं। तमाम जागरूकता के बावजूद आज भी हम दांतों पर उतना ध्यान नहीं देते जितना जरूरी है। यही वजह है कि युवाओं में दांतों में सड़न, सूजन व दर्द के मामले बढ़ रहे हैं।आज युवाओं में दांत से जुड़ी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं। युवा भी सांसों में बदबू, मसूढ़ो में सूजन, दांत में सड़न जैसे रोगों से जूझ रहे हैं। जबकि ऐसे शोधों की कमी नहीं, जिनके निष्कर्ष बताते हैं कि दांतों की बीमारी हमारे दिल तक को प्रभावित करती है। बदलते वक्त के साथ हमारी जीवनशैली बदली है। मगर नहीं बदला, तो दांतों की उपेक्षा करना। दांतों में बढ़ती सड़न हमारा मुंह अनेक कीटाणुओं का घर है। ये सभी कीटाणु दांत, मसूढ़े, जीभ जैसे हिस्सों पर चिपके रहते हैं। इनमें से कुछ हमारे लिए काफी फायदेमंद भी होते हैं। मगर कई हमारे लिए मुसीबतें खड़ी करते हैं। हमें नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे ही कीटाणु दांतों में सड़न की वजह बनते हैं।
दांत मूल रूप से तीन परतों से बनता है- इनामेल, डेंटिन और पल्प। इनामेल ऊपरी ठोस परत है, जबकि डेंटिन मध्य का हिस्सा है और पल्प बीच का। सड़न का हमला सबसे पहले इनामेल पर होता है और फिर धीरे-धीरे वह रिसते हुए पल्प तक पहुंचता है। चिकित्सकीय परिभाषा में कहें, तो सड़न तब बढ़ती है, जब कुछ खास तरह के कीटाणु ऐसे अम्ल पैदा करते हैं, जो दांत के इनामेल और डेंटिन को नुकसान पहुंचाते हैं। और ये बैक्टीरिया कहीं बाहर से नहीं आते, बल्कि हमारी आदतों से ही पनपते हैं। आदतों से मजबूर हम अत्याधुनिक जीवनशैली ने सहूलियतें जरूर दी हैं, मगर इसने कई बुरी आदतों की सौगात भी हमें दी है। रात को देर से सोना और नींद भगाने के लिए मीठे पेय पदार्थों का सेवन बढ़ा है। कंप्यूटर पर भी काम करते वक्त टेबल पर चाय, कॉफी या कोल्ड ड्रिंक के गिलास हमने रखने शुरू कर दिए हैं। ये तमाम मीठे पेय पदार्थ एसिडिक ड्रिंक हैं। यानी ये एसिड (अम्ल) पैदा करते हैं, जो दांतों के लिए नुकसानदेह है।
आज किसी भी ऑफिस में वातानुकूलन की वजह से सालोंभर एक नियत तापमान बना रहता है। इस वजह से हम पहले की तुलना में पानी कम पीने लगे हैं। पानी कम पीने की वजह से थूक या लार अपेक्षाकृत कम बनता है। चूंकि ये भी प्राकृतिक एंटीबायोटिक हैं, इसलिए इसकी कमी हमें कई रोगों का शिकार बनाती है। सड़न की एक बड़ी वजह नशे का सेवन भी है। पान, गुटका, सिगरेट, अल्कोहल की तरफ युवाओं का रुझान बढ़ा है। वे पौष्टिक भोजन से बचने लगे हैं और उनका रुझान पिज्जा, बर्गर, नूडल्स जैसे रिफाइंड कार्बोहाइड्रेड पदार्थों की तरफ बढ़ा है। ये खाद्य वस्तुएं दांतों से चिपक जाती हैं, जो सड़न की वजह बनती हैं। रही सही कसर व्यायाम से दूर रहने की मानसिकता ने पूरी कर दी है। डेन्टिस्टों की मानें, तो इन तमाम आदतों से उम्र से पहले दांतों के गिरने की समस्या बढ़ी है। अब दर्द नहीं देती आरसीटी दांत की तकलीफ न बढ़े, इसके लिए तमाम तरह के उपाय किए जा सकते हैं। मगर यदि सड़न की वजह से दांतों के गिरने की नौबत आ रही है, तो एक ही उपाय है, आरसीटी।
आरसीटी यानी रूट कैनल ट्रीटमेंट। यह एक ऐसी विधि है, जिसके जरिये दांतों से संक्रमित हो चुके प्राकृतिक पल्प को निकालकर उसकी जगह कृत्रिम पल्प लगाया जाता है और दांतों में मौजूद नसों के संजाल की सफाई की जाती है। यह तकनीक दांतों को नया जीवन देती है। हालांकि आरसीटी किए दांत में खून का बहाव नहीं होता और वह संवेदनहीन हो जाता है। बावजूद इसके वह बखूबी अपना काम करता है। यह करीब 30-40 वर्ष पुरानी तकनीक है, जो पिछले 15 वर्षों में खूब प्रचलित हुई है। अब इसके लिए दांतों को निकालना नहीं पड़ता। हाल के वर्षों तक आरसीटी को दुखदायी इलाज माना जाता था। फाइल और रीमर जैसे औजार स्टेनलेस स्टील के होते थे और मैनुअल तरीके से दांतों के अंदर की नसों को साफ किया जाता था। तब इलाज के क्रम में चार-पांच बार डॉक्टरों के पास जाना जरूरी होता था। और अगर कीटाणु का प्रभाव बढ़ जाता, तो मरीज को दर्द निवारक दवाइयां और एंटीबायोटिक दिए जाते थे। यह तकनीक करीब दो दशकों तक प्रचलन में रही। साल 2000 के दशक की शुरुआत में निकल टाइटेनियम रोटरी फाइल का उपयोग शुरू हुआ।
यानी जिन सुई का इस्तेमाल पहले मैनुअल तरीके से होता था, उसके लिए मशीन आ गई। निकल टाइटेनियम अपेक्षाकृत लचीला होता है, इसलिए दांत की भीतरी जड़ों को साफ करना आसान हो गया। नतीजतन एक या दो विजिट में ही मरीजों का काम होने लगा। इससे सफलता की दर भी 65-70 फीसदी से बढ़कर 90 फीसदी तक पहुंच गई। नए सुधार भी हैं जारी हाल के वर्षों से आरसीटी में सेल्फ एडजस्टमेंट फाइल का प्रयोग हो रहा है। असल में दातों की नसें अंडाकार होती हैं और जो औजार इस्तेमाल किए जा रहे थे, वे गोल थे। कैपिंग भी दो-तीन वर्षों में विफल हो जाती थी। नई फाइल एक तरह की जाली है। नसों के तंत्र में यह खुद-ब-खुद उसी का आकार ग्रहण कर लेती है। इस कारण अब आरसीटी के लिए सिर्फ एक ही बार डॉक्टर के पास जाने की जरूरत होती है। इसमें दर्द भी बहुत कम होता है। एंटीबायोटिक की जरूरत भी नहीं होती। दो-तीन दिन में सामान्य तरह से भोजन कर सकते हैं।
फिलिंग है जरूरी रूट कैनल के बाद फिलिंग जरूरी है, ताकि कीटाणु फिर से हमला न बोल दें। आमतौर पर इसके लिए रबड़ की तरह का मैटीरिअल, जिसे गट्टा-परचा कहा जाता है, इस्तेमाल होता है। यह थर्मोप्लास्टिक मैटीरियल होता है। पहले यह नियत आकार में आया करता था और नसों को साफ करने के बाद इसे फिट करने के लिए जगह बनानी होती थी। मगर अब मॉल्टन रबड़ की तरह का पदार्थ उपयोग में लाया जाने लगा है, जिसे जड़ से ऊपर तक भर दिया जाता है। यह उस जगह को हमेशा के लिए सील कर देता है। अब अगर आरसीटी के बाद दांतों पर उम्दा किस्म के क्राउन लगा दिए जाएं, तो दांत की आयु दस-पंद्रह वर्षों तक बढ़ जाती है। इलाज अपेक्षाकृत आसान होने के बावजूद बेहतर यही है कि दांतों की सड़न को शुरुआती दौर में ही रोक लिया जाए। इसके लिए कुछ आदतें हमें अपने जीवन में भी उतारनी होंगी। सबसे पहले सही ब्रशिंग तकनीक को अपनाना चाहिए। दो दांतों के बीच की जगह को अच्छे से साफ करने के साथ ही वक्त-बेवक्त माउथ वॉश का इस्तेमाल जरूरी है। इसी तरह, रात में खाना खाने के बाद ब्रश करना चाहिए। बेहतर है कि हर भोजन के बाद ढंग से कुल्ला अवश्य करें। इससे दांतों पर चिपके भोजन साफ हो जाते हैं। जरूरत दांतों की कतार सीधी रखने की भी है। चूंकि जीभ एक तरह का कपड़ा है, जो दांतों को साफ रखता है, इसलिए यदि दांत सीधे होंगे, तो गाल व जीभ स्वाभाविक तौर पर उसकी सफाई करेंगे। अगर 13-14 वर्ष तक दांतों की कतार सीधी नहीं हुई हो, तो डेन्टिस्ट से सलाह लें। जरूरी यह भी है कि हम टूथ पिक की जगह वाटर पिक का इस्तेमाल करें और संभव हो, तो बी-प्रॉपलिस युक्त टूथपेस्ट ही अधिक इस्तेमाल करें। पान-गुटका जैसे नशीले पदार्थों से बचना तो जरूरी है ही।