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एक विद्रोही नायक सतीश प्रसाद सिंह , जो बने पांच दिन के मुख्यमंत्री

पटना,  बिहार में कई राजनेता प्रदेश की राजनीति से लेकर केन्द्र की सियासत तक पहुंचे और अपना नाम सुनहरे पन्नो में अंकित कराया। इन्हीं में से एक थे राजनीतिक शुचिता की अलग परिभाषा गढ़ने वाले खगड़िया जिले के कोरचक्का गांव के रहने वाले पिछड़े समाज से पहले बिहार के पांच दिन के मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह। हालांकि बाद में उनका सियासी परवाज थम गया और वह अतीत के पन्नों में सिमट कर रहे गये।

सतीश प्रसाद सिंह के असल जीवन की कहानी भी किसी फिल्म के नायक की कहानी से कम नहीं थी। 01 जनवरी 1936 को खगड़िया जिले के परबत्ता प्रखंड के सौढ़ उत्तरी पंचायत स्थित कोरचक्का गांव में जन्में सतीश प्रसाद सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय कोरचक्का से की थी। उनके पिता विश्वनाथ सिंह गांव के बडे़ काश्तकार थे, 400 बीघा जमीन के मालिक। सतीश प्रसाद सिंह ने मैट्रिक और स्नातक की शिक्षा मुंगेर से ग्रहण की। उन्होंने आरडी एंड डीजे कॉलेज मुंगेर से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। आरडी एंड डीजे कॉलेज में बीएससी की पढ़ाई कर रहे सतीश प्रसाद सिंह की मुलाकात ज्ञानकला से हुयी। आंखे चार हुयी, दोनों में पहले दोस्ती और फिर प्यार हुआ। सतीश प्रसाद सिंह , ज्ञानकला से शादी करना चाहते थे, लेकिन परिवार वाले दूसरे जाति की लड़की से शादी के लिये राजी नहीं थे। सतीश प्रसाद सिंह रूढ़िवाद, पारंपरिक मान्यताओं, सामाजिक कुरीतियों और जातिवाद के सख्त विरोधी थे। पचास के दशक में जब भारतीय समाज जातिवाद की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, तब उन्होंने परिवार से बगावत कर वर्ष 1954 में ज्ञानकला देवी से प्रेम विवाह कर लिया, जो दूसरी जाति की थीं। उस समय बिहार के सुदूर इलाकों में अंतर्जातीय विवाह विरले ही होते थे। इस अंतर्जातीय विवाह के कारण उन्हें अपने परिवार के कड़े विरोध, माता-पिता की अवहेलना और कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। श्री सिंह परिवार से निकाल दिये गये और उन्हें जीवन यापन के लिये कुछ जमीन दी गयी।

इसी दौरान श्री सिंह की रूचि राजनीति की ओर हुयी। उन्होंने वर्ष 1962 में परबत्ता विधानसभा से चुनाव लड़ने की ठानी। चुनाव लड़ने के लिये पैसे नहीं थे। उन्होंने जमीन का कुछ हिस्सा बेच दिया और स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतर आये। इस चुनाव में उनको कांग्रेस की लक्ष्मी देवी से हार का सामना करना पड़ा। लक्ष्मी देवी के निधन के बाद परबत्ता विधानसभा में वर्ष 1964 में उपचुनाव कराये गये। सतीश प्रसाद सिंह ने फिर जमीन बेची। उपचुनाव में उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर फिर किस्मत आजमायी, लेकिन जीत इस बार भी नसीब नहीं हुयी। श्री सिंह इसके बाद भी विधायक बनने का ख्वाब संजाये हुये थे। वर्ष 1967 के परबत्ता विधानसभा चुनाव में उन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) का टिकट मिल गया। चुनाव लड़ने के लिए सतीश प्रसाद सिंह ने फिर से जमीन बेची। अबकी बार उन्होंने बाजी मार ली और निर्दलीय एल.एल. मिश्रा को पराजित कर विधानसभा पहुंच गये।

वर्ष 1967 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 128 सीटें मिली थी, जो सरकार बनाने के लिये बहुमत से कम थी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 68 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। उसके नेता कर्पूरी ठाकुर की मुख्यमंत्री के पद पर दावेदारी बनती थी, लेकिन अन्य पार्टियां तैयार नहीं हुयी। ऐसे में जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम पर सभी दल सहमत हो गये। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), जन क्रांति दल और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनायी गयी। इसे संविद सरकार यानी संयुक्‍त विधायक दल की सरकार कहा गया। महामाया प्रसाद 05 मार्च 1967 को बिहार के मुख्यमंत्री बने, जबकि कर्पूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बनें। कांग्रेस के कमजोर पड़ने के बाद पिछड़ावाद काफी मुखर होने लगा था। इसका असर संविद सरकार पर भी पड़ा।

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी विधायकों का एक गुट इस अरेंजमेंट से खुश नहीं था। उन्हें यह लग रहा था कि पिछड़ों की एकता का नारा बुलंद कर हम सत्ता में आए, लेकिन कमान एक बार फिर एक अगड़े को मिल गई। इस गुट में सतीश प्रसाद सिंह भी शामिल थे। कांग्रेस इस सरकार को टिकने नहीं देना चाह रही थी और इससे पहले के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय (के.बी.सहाय) इसमें पूरी ताकत झोंक रहे थे। वर्ष 1967 में पटना पश्चिम सीट से तत्कालीन मुख्यमंत्री के.बी.सहाय को जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा ने पराजित किया था। चुनावी बिसात पर मात खाए केबी सहाय पहले से ही महामाया प्रसाद सिन्हा से खार खाये हुये थे।कांग्रेस विधायक दल के नेता महेश प्रसाद सिंह ने महामाया सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दे दिया।विधानसभा के पटल पर अविश्वास प्रस्ताव रखा गया और महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार गिर गयी।

नयी सरकार बनाने के लिये बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बी.पी.मंडल) को आगे किया गया।सतीश प्रसाद सिंह ने (बी.पी.मंडल) के साथ सलाह-मशविरा किया। बी.पी मंडल पहले से ही डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, महामाया प्रसाद सिन्हा और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं से नाराज चल रहे थे। दरअसल राम मनोहर लोहिया की पार्टी संसोपा के संविधान के मुताबिक कोई सांसद, प्रदेश अध्यक्ष और विधान परिषद सदस्य राज्य सरकार में पद नहीं ले सकता था। फिर भी मधेपुरा के सांसद बी.पी. मंडल महामाया प्रसाद सरकार में स्वास्थ मंत्री बने थे। इसके चलते छह महीने बाद बी.पी.मंडल को संवैधानिक विवशता के चलते इस्तीफा देना पड़ा था। बी.पी.मंडल, सतीश प्रसाद सिंह ने तब शोषित दल बना लिया था।बी.पी.मंडल के मुख्यमंत्री बनने में अड़चन थी।रास्ता यह निकाला गया कि कोई दूसरा कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री बन जाये और वह राज्यपाल के पास विधान परिषद के लिए बी. पी. मंडल के नाम की अनुशंसा कर दे तो काम हो जाएगा। बी.पी.मंडल ने सतीश सिंह के नाम पर सहमति जताई।

28 जनवरी,1968 की शाम को सतीश प्रसाद सिंह टहल रहे थे। उसी समय कांग्रेस विधायक दल के नेता महेश प्रसाद सिंह और रामलखन सिंह यादव उनके पास आये। उन लोगों ने अपने साथ चलने की बात की। लेकिन कहां जाना है, यह नहीं बताया। वे लोग उन्‍हें लेकर राजभवन पहुंच गये और समर्थन की चिट्ठी राज्‍यपाल को सौंप दी और उसी शाम साढ़े 7 बजे शपथग्रहण का समय तय हो गया। सतीश प्रसाद सिंह के साथ सिर्फ दो मंत्रियों शत्रुमर्दन शाही और एनई होरो को शपथ दिलायी गया।सतीश प्रसाद को कैबिनेट बुलाकर एक अनुशंसा करनी थी कि बी. पी. मंडल को राज्यपाल विधान परिषद के लिए नॉमिनेट कर दें। सतीश सिंह ने मंडल के लिए यह कर दिया। बाद मे बी.पी.मंडल विधान पार्षद बन गये।

30 जनवरी,1968 को गांधी घाट से तत्कालीन राज्‍यपाल नित्यानंद कानूनगो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद राजभवन लौट रहे थे कि रास्‍ते में बी.एन.कॉलेज के पास बी.एन.कॉलेज के आंदोलनरत छात्रों ने उनकी गाड़ी पर पत्‍थर से प्रहार कर दिया, जिससे आगे का शीशा टूट गया। पुलिस ने बल प्रयोग किया तो लड़कों ने पत्थर चला दिये। इस घटना से नाराज बी. पी. मंडल ने मुख्‍य सचिव से कहा कि आरोपित छात्रों को गिरफ्तार करवा लो। इसके तुरंत सतीश प्रसाद सिंह ने मुख्‍य सचिव को छात्रों को गिरफ्तार नहीं करने का निर्देश दिया। इस घटना से बी. पी. मंडल सशंकित हो गये। उन्‍हें लगा कि सतीश प्रसाद सिंह अब इस्‍तीफा देने वाले नहीं हैं।उन्होंने कांग्रेस नेता राम लखन सिंह यादव को फोन लगाया। इसके बाद कांग्रेस विधायक दल नेता महेश प्रसाद सिन्हा ने मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह को फोन किया।सतीश प्रसाद सिंह ने अपना वादा निभाया। उन्होंने 01 फरवरी 1968 को इस्तीफा दिया और बी.पी.मंडल नये मुख्यमंत्री बने।

सतीश प्रसाद सिंह केवल पांच दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बने, लेकिन इतने कम समय में भी उन्होंने बिहार के किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण फैसला लिया, जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। उनके इस फैसले से बिहार के किसानों की एक बड़ी समस्या दूर हुई। बड़े पैमाने पर आलू के उत्पादन और पंजाब जैसे राज्यों में आलू की बढ़ी मांग के बावजूद बिहार से आलू की बिक्री के लिए भेजने की इजाजत नहीं थी। सतीश प्रसाद सिंह ने बिहार के किसानों को एक बड़ी सौगात देते हुए आलू को बिहार से बाहर भेजने की छूट पर मुहर लगा दी।उनके इस फैसले से बिहार के किसान आलू उत्पादन कर बाहर भेजने में सक्षम हुए, जिससे बिहार के किसानों को बड़ा लाभ हुआ।

सतीश प्रसाद सिह ने ‘जोगी और जवानी’ नाम से एक फिल्म का निर्माण और निर्देशन भी किया था। वे इस फिल्म में खुद ही नायक की भूमिका में भी थे। हालांकि फिल्म प्रदर्शित नहीं हो सकी। वर्ष 1969 में सतीश प्रसाद सिंह ने परबत्ता विधानसभा क्षेत्र से शोषित दल के टिकट पर चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें कांग्रेस के जगदंब प्रसाद मंडल से हार का सामना करना पड़ा। वर्ष 1971 में सतीश प्रसाद सिंह ने खगड़िया लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा।

इस चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के शिवशंकर प्रसाद यादव ने जीत हासिल की। निर्दलीय प्रत्याशी सतीश प्रसाद सिंह चौथे नंबर पर रहे। वर्ष 1980 में सतीश प्रसाद सिंह ने इंदिरा कांग्रेस के टिकट पर खगड़िया संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और जनता पार्टी (सेक्यूलर) की सुमित्रा देवी को पराजित किया और पहली बार सांसद बने।

वर्ष 1957 में खगड़िया सीट पर पहली बार आम चुनाव में कांग्रेस के जियालाल मंडल ने परचम लहराया। उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी सुरेश शर्मा को पराजित किया। वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जिया लाल मंडल के घर को आग के हवाले कर पूरे परिवार को जलाने का प्रयास अंग्रेजी हुकूमत ने किया था।वर्ष 1942 के आंदोलन में जियालाल मंडल एवं उनके छोटे भाई अयोध्या मंडल को अंग्रेजों ने रेल पटरी तोड़ने, थाना में तोड़फोड़ एवं आगजनी सहित विभिन्न आरोपों में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। जिया लाल मंडल ने पहली बार स्वाधीन भारत में बिहार विधान सभा चुनाव बख्तियारपुर-चौथम सीट से कांग्रेस के टिकट पर लड़ा और जीत हासिल की। वर्ष 1962 के चुनाव में भी कांग्रेस के जियालाल मंडल अपना सिक्का जमाने में दुबारा कामयाब रहे। उन्होंने स्वतंत्र पाटी के विद्यानंद को मात दी। वर्ष 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के उम्मीदवार शकरपुरा स्टेट के पहले युवराज ,राजा ललितेश्वर प्रसाद सिंह के पुत्र कामेश्वर सिंह ने जीत का स्वाद चखा। उन्होंने कांग्रेस के जियालाल मंडल को पराजित किया।वर्ष 1971 के चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ही शिवशंकर यादव विजयी हुए थे। वर्ष 1977 में समाजवादी नेता शिवशंकर यादव ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया।यह वह दौर था जब जनता पार्टी की लहर थी। श्री यादव संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से बिहार की खगड़िया सीट से 1971 में सांसद बने थे,लेकिन उनका सांसदी का अनुभव ‘अच्छा’ नहीं था। भारतीय लोक दल के टिकट पर उनकी जीत तय थी, बावजूद इसके शिवशंकर यादव ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। उनका कहना था, न मैं टिकट लूंगा और न ही चुनाव लडूंगा। ऐसा सांसद होने का क्या मतलब, जब वोटर गलत कामों की पैरवी कराने आने लगें? मैं ऐसे कामों की पैरवी से इंकार करते-करते तंग आ चुका हूं। मेरी अंतरात्मा मुझे और आगे तंग होते रहने की इजाजत नहीं देती। शिवशंकर यादव बेहद ईमानदार थे। निधन हुआ तो उनके पास से केवल सात रुपए निकले थे।

वर्ष 1977 के आम चुनाव में खगड़िया से कांग्रेस के चंद्रशेखर प्रसाद वर्मा ने जीत हासिल की। सतीश प्रसाद सिंह ने वर्ष 1977 में ही परबत्ता विधानसभा से चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में निर्दलीय नईम अख्तर ने जीत हासिल की थी। निर्दलीय सतीश प्रसाद सिंह तीसरे नंबर पर रहे थे।

वर्ष 1980 में सतीश प्रसाद सिंह ने इंदिरा कांग्रेस के टिकट पर खगड़िया संसदीय क्षेत्र से जीत हासिल की। उन्होंने जनता पार्टी (सेक्यूलर) की सुमित्रा देवी को पराजित किया।वर्ष 1984 में कांग्रेस के चंद्रशेखर प्रसाद वर्मा ने जीत हासिल की। सतीश प्रसाद सिंह पांचवे नंबर पर रहे।वर्ष 1989 के चुनाव में जनता दल के रामशरण यादव ने कांग्रेस के सतीश प्रसाद सिंह को पराजित किया। इससे पूर्व श्री यादव ने खगड़िया विधानसभा क्षेत्र से 1972,1977 और 1980 में जीत हासिल की थी। वर्ष 1991 के चुनाव में जनता दल के रामशरण यादव ने जीत हासिल की। वर्ष 1996 में जनता दल के अनिल कुमार यादव के विजय का मार्ग प्रशस्त हुआ। उन्होंने समता पार्टी के शकुनी चौधरी (वर्तमान सरकार में उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी के पिता) को हराया। वर्ष 1998 में समता पार्टी के शकुनी चौधरी ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अनिल कुमार यादव को पराजित कर विजयी झंडा लहराया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के सत्य नारायण सिंह तीसरे नंबर पर रहे। इसके एक साल बाद 1999 के चुनाव में जनता दल यूनाईटेड (जदयू) की रेणु कुमारी (बिहार सरकार की पूर्व उप मुख्यमंत्री) की जीत हुई थी। उन्होंने राजद प्रत्याशी रवीन्द्र कुमार राणा (आर.के.राणा) की पत्नी नयना राणा को पराजित किया। भाकपा के सत्य नारायण सिंह तीसरे नंबर पर रहे। वर्ष 2004 में राजद के (आर.के.राणा) ने जदयू की रेणु कुमारी को मात दी। आर.के.राणा बहुचर्चित चारा घोटाला मामला में शामिल थे। चारा घोटाला मामले की मास्टरमाइंड तिकड़ी राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव, आर.के.राणा और श्याम बिहारी सिन्हा की थी। चारा घोटाला मामले में श्री राणा को सजा मिली थी।

वर्ष 2009 में जदयू के दिनेश चन्द्र यादव ने कांग्रेस के चौधरी महबूब अली कैसर को मात दी। राजद के रवीन्द्र कुमार राणा तीसरे नंबर पर रहे। वर्ष 2014 के चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) प्रत्याशी चौधरी महबूब अली कैसर की जीत हुयी। उन्होंने राजद प्रत्याशी पूर्व विधायक रणवीर यादव की पत्नी कृष्णा कुमारी को पराजित किया। जदयू के दिनेश चंद्र यादव तीसरे नंबर पर रहे।

वर्ष 2019 के आम चुनाव में बिहार के पूर्व मंत्री चौधरी सलाउद्दीन के पुत्र और तत्कालीन सांसद महबूब अली कैसर ने महागठबंधन में शामिल विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुकेश सहनी को पराजित किया। लोजपा में टूट के बाद कैसर , राम विलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस के खेमे में शामिल हो गये थे। इस बार के चुनाव में रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने श्री कैसर को अपनी पार्टी लोजपा (रामविलास) का प्रत्याशी नहीं बनाया है।

खगड़िया संसदीय सीट से राजग के घटक दल लोजपा (रामविलास) के टिकट पर राजेश वर्मा पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। राजेश वर्मा वर्ष 2017 में भागलपुर के डिप्टी मेयर थे। इसके बाद राजेश वर्मा ने वर्ष 2020 में लोजपा के टिकट पर भागलपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ा। इस चुनाव में वह तीसरे नंबर पर रहे। वहीं इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंक्लूसिव अलायंस (इंडिया गठबंधन) में सीटों में तालमेल के तहत खगड़िया सीट मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को मिली है। माकपा के टिकट पर पूर्व विधायक योगेन्द्र सिंह के पुत्र और विभूतिपुर के विधायक अजय कुमार के भाई संजय कुमार चुनाव लड़ेंगे। संजय कुमार खगड़िया से माकपा के जिला सचिव हैं। श्री कैसर हाल ही में राजद में शामिल हुये हैं। श्री कैसर इस बार के चुनाव में माकपा के संजय कुमार को समर्थन देने की घोषणा की है।

खगड़िया लोकसभा सीट वर्ष 2014 और वर्ष 2019 में लोजपा के खाते में गई थी। यहां से चौधरी महबूब अली कैसर दो बार भारी बहुमत लाकर संसद पहुंचे थे, जबकि इस बार चिराग पासवान की पार्टी लोजपा-रामविलास राजेश वर्मा पर दांव आजमा रही है। तीसरी बार खगड़िया सीट को जीतना लोजपा (रामविलास) के लिए प्रतिष्ठा की बात बन चुकी है।चिराग पासवान किसी भी कीमत पर खगड़िया में एक बार फिर लोजपा रामविलास को जीत दिलाने के लिए कोई कसर छोड़ना नहीं चाह रहे हैं। चिराग पासवान ने खगड़िया सीट को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ दिया है। खगड़िया लोकसभा सीट के लिए एक ओर राजग जोर आजमाइश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन भी जीत के लिए कोई कोर कसर छोड़ने की फिराक में नहीं है।

वर्ष 1995 में सतीश प्रसाद सिंह ने परबत्ता विधानसभा से समता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा। इस चुनाव में जनता दल के विद्यासागर निषाद ने जीत हासिल की। समता पार्टी के सतीश प्रसाद सिंह चौथे नंबर पर रहे। जब 1971-72 के आसपास कोरचक्का गांव गंगा की कटाव में विलीन हो गया, तो पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह के नाम पर राष्ट्रीय उच्च्पथ 31 के किनारे एक गांव बसा, जिसका नाम सतीश नगर रखा गया। बिहार के सबसे कम दिन (पांच दिन) मुख्यमंत्री रहने का नाम रिकॉर्ड सतीश प्रसाद सिंह के नाम है। सतीश प्रसाद सिंह के सहयोगी शोषित दल के नेता ‘बिहार के लेनिन’ कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद हुआ करते थे।दोनों बाद के दिनों में समधी बने। सतीश प्रसाद सिंह की बेटी सुचित्रा सिन्हा की शादी जगदेव प्रसाद के पुत्र नागमणि से हुयी। नागमणि बिहार की राजनीति का चर्चित नाम रहे हैं। वर्ष 1999 में नागमणि, लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के टिकट पर झारखंड के चतरा से सांसद हुये।वह वाजपेयी सरकार में कुछ समय के लिए राज्यमंत्री रहे। उनकी पत्नी सुचित्रा सिन्हा नीतीश सरकार में 2005 से 2010 के बीच मंत्री भी रहीं। फरवरी 2005 परबत्ता विधानसभा से सतीश प्रसाद सिंह के छोटे पुत्र सुशील कुमार ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन जीत हासिल नहीं कर सके।अपने दम पर बिहार की राजनीति में एक अलग ही मुकाम हासिल करने वाले बिहार के पांच दिन के मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह का 02 नवंबर 2020 को दिल्ली में निधन हो गया।

खगडिय़ा को नदियों का मायका कहा जाता है। यहां से होकर आठ नदियां गुजरती है। गंगा, कमला बालन, कोसी, बूढ़ी गंडक, काली कोसी, करेह, बागमती और चंद्रभागा से घिरे खगड़िया में कात्यायनी माता और अजगैबीनाथ महादेव के मंदिरों के प्रति पूरे देश की श्रद्धा है। यहां 54 धारा-उपधारा है।नदी-पानी की प्रचुरता के कारण खगडिय़ा मछली उत्पादन में अहम स्थान रखता है।यहां पर कोशी कॉलेज है, जिसे ‘बिहार का कैंब्रिज’ भी कहा जाता है।

खगड़िया लोकसभा क्षेत्र के तहत छह विधानसभा क्षेत्र आते हैं। इनमें चार विधानसभा क्षेत्र अलौली (सु), खगड़िया, बेलदौर और परबत्ता खगड़िया ज़िले में, एक सिमरी बख्तियारपुर सहरसा ज़िले में और एक हसनपुर समस्तीपुर जिले में है।खगड़िया विधानसभा सीट पर कांग्रेस, परबत्ता और बेलदौर विधानसभा सीट पर जदयू और अलौली (सु),हसनपुर और सिमरी बख्तियारपुर विधानसभा सीट पर राजद का कब्जा है। हसनपुर सीट पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के पुत्र तेज प्रताप यादव और सिमरी बख्तियारपुर सीट पर चौधरी महबूब अली कैसर के पुत्र यूसूफ सलाहउद्दीन विधायक हैं।

खगड़िया संसदीय सीट पर हुये चुनाव में अबतक सर्वाधिक तीन-तीन बार कांग्रेस और जनता दल ने जीत हासिल की है। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी , जदयू और लोजपा के प्रत्याशी दो दो-दो बार यहां जीते। भारतीय लोकदल, इंदिरा कांग्रेस, समता पार्टी और राजद ने यहां एक-एक बार विजयी पताका लहरायी है।भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का ‘केसरिया’ और वामदल का लाल झंडा यहां कभी नहीं लहराया है।

खगड़िया संसदीय सीट से लोजपा-रामविलास, माकपा,बहुजन समाज पार्टी, समेत 12 प्रत्याशी चुनावी मैदान में है। खगड़िया लोकसभा क्षेत्र में कुल मतदाताओं की संख्या 11 लाख 82 हजार 359 है। इनमें 06 लाख 19 हजार 890 पुरूष, 05 लाख 62 हजार 438 महिला और 31 थर्ड जेंडर हैं, जो तीसरे चरण में 07 मई को होने वाले मतदान में इन प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला करेंगे। इस बार के चुनाव में राजग और इंडिया गठबंधन दोनों ने ही नये प्रत्याशी पर दाव लगाया है, देखना दिलचसप होगा कि लोजपा-रामविलास के उम्मीदवार जीत का सेहरा अपने सर सजा पाते हैं, या फिर वामदल माकपा का ‘लाल झंडा’ खगड़िया की सियासी जमीं पर बुंलद होता है। यह तो 04 जून को नतीजे के बाद ही स्पष्ट हो पायेगा।