नई शिक्षा नीति के मसौदे के प्रमुख बिंदुओं में छात्रों को फेल न करने की नीति पांचवीं कक्षा तक के लिए सीमित करने, ज्ञान के नए क्षेत्रों की पहचान के लिए एक शिक्षा आयोग का गठन करने, शिक्षा के क्षेत्र में निवेश को बढ़ाकर कम से कम छह फीसदी करने और शीर्ष विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश को बढ़ावा देने जैसे कदमों का जिक्र किया गया है। दस्तावेज में यह भी कहा गया है कि सभी राज्य और केंद्रशासित प्रदेश यदि चाहें तो स्कूलों में पांचवीं कक्षा तक निर्देश के माध्यम के रूप में मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल कर शिक्षा प्रदान कर सकते हैं।
नई शिक्षा नीति के बारे में टीएसआर सुब्रह्मण्यम समिति की जिस सिफारिश ने सबसे ज्यादा ध्यान खींचा, वो यह है कि छात्रों को फेल ना करने की नीति कक्षा पांच के बाद खत्म कर दी जाए। यानी छठी कक्षा से परीक्षा आधारित पुरानी पद्धति वापस लाई जाए। फेल ना करने की नीति 2009 में लागू हुए मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) का हिस्सा है। लेकिन आम धारणा बन गई है कि यह सफल नहीं रही। 18 राज्यों ने यह प्रणाली खत्म करने की सिफारिश की है। शिकायत है कि इसकी वजह से पढ़ने-पढ़ाने की गंभीरता खत्म हुई, जिससे छात्रों के सीखने का स्तर प्रभावित हुआ।
लेकिन अनेक शिक्षाशास्त्री फेल ना करने की प्रणाली को एक उन्नत नीति मानते हैँ। उनके मुताबिक इसके पीछे समझ यह है कि बच्चों के व्यक्तित्व को समग्र विकास को अवसर मिलना चाहिए। जबकि पास-फेल का सिस्टम सिर्फ परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर उनका मूल्यांकन करता है। इसलिए यह सवाल उठा है कि आरटीई में अपनाई गई एक उन्नत व्यवस्था को सिर्फ कुछ वर्षों के अनुभव के बाद छोड़ देना कितना उचित होगा? फेल ना करने की प्रणाली दरअसल, समग्र एवं निरंतर मूल्यांकन से जुड़ी है। यानी छात्र का रोजमर्रा के स्तर पर और उसकी सभी प्रतिभाओं या खूबियों का मूल्यांकन होना चाहिए। सुब्रह्मण्यम समिति ने 2005 के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क की जगह नया ढांचा लागू करने की अनुशंसा की है।