मिर्जापुर, सावन में अपनी अनूठी सांस्कृतिक परम्परा एवं वर्षा गीत के रुप में देश विदेश में मशहूर मिर्जापुर की कजली को अब तक बारिश का इंतजार है।
पूर्वी इलाकों में सूखे के आसार ने जहां स्थानीय लोगों में बेचैनी पैदा कर दी है, वहीं मौसम की बेरुखी से लोक संस्कृति भी प्रभावित हो रही है। गांवों में अजब सन्नाटा है। अषाढ़ एकादशी को लक्ष्मीनारायण मेला के साथ यहां मेलों की शुरुआत हो चुकी है मगर सावन के पहले सप्ताह में भी बारिश के अभाव में कजली के स्वर नहीं फूटे है।
भले ही आधा भारत बाढ़ एवं अतिवृष्टि से प्रभावित है, पर विंध्याचल क्षेत्र में धूल उड़ रही है। जिससे लोक संस्कृति के साथ होने वाले आनन्द एवं उमंगता को झटका लगा दिया है।
दरअसल , वर्षा,कजली और स्थानीय मेले एक दूसरे के पूरक हैं। वर्षा और कजली के बीच अजीब रिश्ता है। वर्षा के बिना कजली की कल्पना नही की जा सकती। जब वर्षा के साथ बादल घुमड़ते है भरे तालाब व बहती नदी नालों से कजली को कथ्य मिलता है। वर्षा कालीन मेलो में उसे स्वर मिलता है।
प्रसिद्ध विद्वान व पूर्व प्राचार्य बृजदेव पाण्डे कहते हैं कि वर्षा संयोग व वियोग दोनों तरह की कजली का मुख्य बिंदु है। वर्षा जहां नायक नायिका को रति के लिए आकर्षित करती है तो संयोग कजली बनती है और जब सुहाने मौसम में नायिका को नायक का बिछुडन सताता है तो उसका प्रस्फुटन वियोग कजली के रूप में होती है दोनो स्थिति में वर्षा अति आवश्यक है।वे कहते हैं कि जब चारों ओर हरियाली और पानी पानी रहता है तब कजली बनती है। ‘छह छह नदियां बहे उतान,बदरा करें तकरार सवना आई गईल ननदी ‘।
श्री पाण्डेय एक बहुत प्रसिद्ध कजली का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि ‘कैसे खेलई जैबू,सावन में कजरिया, बदरिया घेरे आवे ननदी ‘। फिलहाल गांवों के चौपालो पर सावनी फूंहार में सराबोर महिलाओं के ढुनमुनिया नृत्य के साथ परम्परागत कजली की स्वर लहरियां गूंजती थी और पुरुषों के कजली टेर दूर दूर तक सुनाई पड़ती थी।वही वर्षा के अभाव में अजब सन्नाटा पसरा है। कजली का कही नामोनिशान नहीं है।