इटावा , देश भर में आयोजित रामलीलाओं मे खलनायक की भूमिका नजर आने वाले रावण को उत्तर प्रदेश में इटावा के जसवंतनगर में संकट मोचक की भूमिका में पूजा जाता है। यहां रामलीला के समापन में रावण के पुतले को दहन करने के बजाय उसकी लकड़ियों को घर ले जा कर रखा जाता है ताकि साल भर उनके घर में विघ्न बाधा उत्पन्न न हो सके।
जसवंतनगर मे रावण की ना केवल पूजा की जाती है बल्कि पूरे शहर भर मे रावण की आरती उतारी जाती है सिर्फ इतना ही नही रावण के पुतले को जलाया नहीं जाता। लोग पुतले की लकड़ियों को अपने अपने घरों मे ले जा करके रखते है ताकि वे साल भर हर संकट से दूर रह सके । कुल मिला कर कहा जा सकता है कि रावण संकट मोचक की भूमिका निभाता चला आया है आज तक जसवंतनगर मे रामलीला के वक्त भारी हुजुम के बावजूद भी कोई फसाद ना होना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
मान्यता है कि दुनिया भर मे इस तरह की रामलीला कही भी नही होती है,इसी कारण साल 2005 मे यूनेस्को की ओर से रामलीलाओ के बारे जारी की गई रिर्पाेट मे भी इस रामलीला को जगह दी जा चुकी है,160 साल से अधिक का वक्त बीत चुकी इस रामलीला का आयोजन दक्षिण भारतीय तर्ज पर मुखौटों को लगाकर खुले मैदान मे किया जाता है । त्रिडिनाड की शोधार्थी इंद्राणी रामप्रसाद करीब 400 से अधिक रामलीलाओ पर शोध कर चुकी है लेकिन उनको जसवंतनगर जैसी होने वाली रामलीला कही पर भी देखने को नही मिली है।
जानकार बताते है कि रामलीला की शुरुआत यहा 1855 मे हुई थी लेकिन 1857 के ग़दर ने इसको रोका फिर 1859 से यह लगातार जारी है। रामलीला के प्रबंधक अजेंद्र गौर का कहना है कि यहा रावण, मेघनाथ, कुम्भकरण ताम्बे, पीतल और लोह धातु से निर्मित मुखौटे पहन कर मैदान में लीलाएं करते हैं। शिव जी के त्रिपुंड का टीका भी इनके चेहरे पर लगा हुआ होता है । जसवंतनगर के रामलीला मैदान में रावण का लगभग 15 फुट ऊंचा रावण का पुतला नवरात्र के सप्तमी को लग जाता है। दशहरे वाले दिन रावण की पूरे शहर में आरती उतार कर पूजा की जाती है और जलाने की बजाय रावण के पुतले को मार मारकर उसके टुकड़े कर दिये जाते हैं और फिर वहां मौजूद लोग रावण के उन टुकड़ों को उठाकर घर ले जाते हैं । जसवंतनगर मे रावण की तेरहवीं भी की जाती है।