राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) कानून को असंवैधानिक ठहराने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संसदीय संप्रभुता को झटका बताया है। उनकी बात में दम है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया बदलने के लिए संविधान का 99वां संशोधन और एनजेएसी कानून सर्वदलीय सहमति से संसद में पारित हुए थे। उसके बाद 20 राज्य विधानसभाओं ने भी इस पर मुहर लगाई।
फिर यह कानून वर्षों से सामने आ रही शिकायतों के मद्देनजर लंबी राष्ट्रीय बहस के बाद अस्तित्व में आया था, जिसके तहत जजों की नियुक्ति की सवा दो दशक से जारी कॉलेजियम प्रणाली को बदलने का प्रावधान किया गया। कॉलेजियम प्रणाली के तहत सुप्रीम कोर्ट के पांच सबसे सीनियर जजों की समिति सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं तबादले पर फैसला लेती है।
नई व्यवस्था में केंद्र सरकार को भी इन मामलों में भूमिका मिलती। एनजेएसी में केंद्रीय विधि मंत्री और दो जाने-माने लोग सदस्य होते, जिनका चयन लोकसभा में विपक्ष (या सबसे बड़े दल) के नेता के साथ मशविरा करते हुए सरकार करती। प्रस्तावित एनजेएसी को अनेक मशहूर वकीलों और सिविल सोसायटी के संगठनों ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संकुचित करने का प्रयास बताया। दलील दी गई कि भारत में सबसे ज्यादा सरकारी मुकदमे ही अदालतों के सामने आते हैं, ऐसे में जजों की नियुक्ति में सरकार को भूमिका मिलना कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट (हितों का टकराव) माना जाएगा।
इस मामले में 1970 के दशक के उदाहरण दिए गए, जब तत्कालीन सरकार ने अपनी विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध जजों की नियुक्ति के प्रयास किए। नतीजा हुआ कि आपातकाल के दौरान न्यायपालिका नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा में खड़ी होने में विफल रही। जाहिर है, जस्टिस जेएस केहर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने एनजेएसी के खिलाफ दी गई दलीलों को स्वीकार किया और न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने के लिए पास कानून को असंवैधानिक करार दिया। लेकिन उसने यह निर्णय भी लिया कि कॉलेजियम प्रणाली में सुधार के लिए वह आगामी तीन नवंबर से सुनवाई शुरू करेगी।
इस तरह परोक्ष रूप से कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि कॉलेजियम प्रणाली के बारे में आई शिकायतों में दम है। यानी उसने जजों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था में सुधार की जरूरत तो समझी, लेकिन यह काम अपने दायरे में बनाए रखा है। अब देखना होगा कि क्या कोर्ट ऐसी व्यवस्था विकसित कर पाता है, जिससे संदिग्ध नियुक्तियों की शिकायतों को दूर किया जा सके? सुप्रीम कोर्ट ऐसा कर पाया, तो एनजेएसी का पक्ष कमजोर पड़ेगा। वरना, सरकार का यह तर्क अधिक स्वीकार्य महसूस होगा कि जजों की नियुक्ति में उसकी भी भूमिका होनी चाहिए, ताकि इस काम में पारदर्शिता आए।