नयी दिल्ली , धार्मिक आयोजनों और आधुनिक जीवन शैली में स्वास्थ्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण माने जाने वाले मखाना की सबौर-एक किस्म ने उत्पादन के सारे रिकॉर्ड तोड़ कर एक नया मुकाम हासिल किया है ।
कहा जाता है कि मखाना स्वर्ग में भी नहीं मिलता है लेकिन बिहार कृषि विश्वविद्यालय के भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय ने वर्षों के शोध के बाद देश में सबौर-एक किस्म का विकास कर लिया है । देश में पहली बार वैज्ञानिकों ने मखाना के स्वर्ण वैदेही किस्म का विकास किया था । इससे पहले किसान परम्परागत किस्म के मखाने की खेती करते थे जिसकी पैदावार बेहद कम थी ।
सहायक प्राध्यापक और वैज्ञानिक अनिल कुमार के अनुसार सबौर मखाना एक के बीज (गुर्री) की उपज क्षमता 32 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और पॉप ( लावा) तैयार होने की मात्रा 55 से 60 प्रतिशत है, जबकि ‘स्वर्ण वैदेही‘ के बीज की उपज क्षमता-28 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और पॉप तैयार होने की मात्रा 35 से 40 प्रतिशत है ।
डॉ कुमार ने बताया कि इसके पत्ते बड़े गोलाकार, गहरे बैंगनी रंग के फूल, मध्यम आकार के फल, बीजावरण बहुत पतले (0.29 मिमी) के साथ छोटे, अंडाकार और चिकना बीज होता है । इसमें ब्लाइट रोग के प्रति मध्यम रोग प्रतिरोधक क्षमता पायी जाती है। बीज की परिपक्वता अवधि 240 से 250 दिन है ।
सत्रहवीं शताब्दी के पूर्व से ही बिहार के मिथिलांचल के हृदय मधुबनी जिला को विश्व में सर्वप्रथम मखाना के महत्व एवं इसके खेती के बारे में अवगत कराने का गौरव प्राप्त है । मखाना की खेती मिथिलांचल के अन्य जिलों जैसे सीतामढ़ी, दरभंगा, समस्तीपुर, शिवहर आदि के अलावा नेपाल के कुछ हिस्से जैसे जलेश्वर, कुर्था, मठियानी आदि जगहों पर तालाब पद्धति अर्थात छह से सात फुट पानी में होती थी। ऐसी पौराणिक अवधारणा थी कि मखाने की खेती छह से सात फुट पानी वाले तालाब में ही हो सकती है। पौराणिक समय से ही मखाना का मिथिलांचल क्षेत्र में सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठानों में एक विशिष्ठ स्थान प्राप्त है। जीवन काल से लेकर मृत्यु के बाद भी मखाना मिथिलांचल वासियों से जुड़ा रहता है। श्राद्ध कर्म में भी इसका विशेष महत्व है। इसे ऐसा अन्न कहा गया है जो स्वर्ग में भी उपलब्ध नहीं होता। यह एक शुद्ध प्राकृतिक फल है, जो व्यापक रूप से पूजन के समय बलिदान के रूप में उपयोग किया जाता है ।
डॉ कुमार ने बताया कि आधुनिक जीवन शैली में लोगों में खानपान को लेकर बढ़ी जागरुकता और विदेशों में बढ़ी मांग के बाद अब किसानों को मखाना का मूल्य घर पर 300 रुपए प्रति किलो तक मिलने लगा है ।
मखाना एक उष्णकटिबंधीय शुष्क फल है। आंधी और तूफान मखाने के बड़े-बड़े पत्ते को उलट-पलट कर पौधे को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। शुष्क एवं गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में मखाना की अच्छी उपज होती है।
मखाना का बीज दिसम्बर में पौधशाला में बुआई करते हैं जो मार्च तक खेत में लगा दिये जाते हैं ।अप्रैल से जून महीने तक पौधों में फूल एवं फल निकलने लगता है और जुलाई-अगस्त से मखाना बीज की कटाई प्रारंभ हो जाती है। इसकी खेती के लिए चिकनी दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है । जलाशयों, तालाबों; नीचली जमीन में रूके हुए पानी में इसकी अच्छी उपज होती है । निचली भूमि जिसमें धान की खेती होती है, में भी खेत प्रणाली से मखाने की अच्छी उपज कर काफी लाभ अर्जित किया जा सकता है ।
एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिए 500 से 600 वर्गमीटर क्षेत्रफल में पौधशाला पर्याप्त है।
रोपाई के लिए प्रति हेक्टेयर 22 से 25 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है जबकि छिड़कवां विधि से 40 से 45 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है । खेत और तालाब प्रणाली में पौधशाला में पानी का स्तर क्रमशः 6 इंच और अधिकतम पांच से छह फुट रखा जाता है ।
मुख्य खेत में रोपाई के लिए बुवाई के 60 से 65 दिन बाद पौधशाला से पौधों को उखाड़ दिया जाता है ।
मखाने के खेती में सबसे दुरूह कार्य छह से सात फुट गहरे पानी वाले तालाब में गोता लगाकर छोटे-छोटे मखाना बीज यानि गुर्री को तालाब की तलहटी के कीचड़ से निकालना है।
कालांतर में दरभंगा, मधुबनी जिले के मछुआरा समुदाय के भ्रमणकारी श्रमिकों ने रोजगार की खोज में भटकते हुए सीमांचल क्षेत्रों में मखाना की खेती शुरू की । वर्ष 2012 में पूर्णिया के मखाना किसानों को मात्र 3000 से 4000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गुर्री को बेचना पड़ता था । किसानों को जागरूक कर मखाना उद्योग में व्याप्त एकाधिकार को काफी हद तक कम किया गया है, जिससे मखाना गुर्री का अधिकतम मूल्य 18000 रू प्रति क्विंटल से लेकर न्यूनतम 9000-10000 रुपए प्रति क्विंटल की दर से किसानों को मिल रहा है जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई है ।