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ऐतिहासिक दशहरा मेला कोरोना की भेंट चढ़ा

कोटा, राजस्थान में कोटा के ऐतिहासिक दशहरे मेले में वैश्विक महामारी कोरोना के चलते
इस बार भीड़ के नहीं होने के कारण पहले जैसी रौनक नजर नहीं आयेगी।

मेले आयोजन के लिए औपचारिक तौर पर परंपराओं का निर्वह्न शुरू हो गया है और काेरोना नियमों के चलते 25 अक्टूबर को विजया दशमी पर रावण दहन तो होगा लेकिन उसमें पहले की तरह लोगों की भीड़ जमा नहीं हो सकेगी।

कोटा के किशोरपुरा स्थित दशहरा मेला स्थल पर लगभग महीना भर चलने वाले मेले में इस बार दुकानें सजने, खरीददारी के लिए भीड़ उमड़ने, श्री राम रंगमंच पर रामलीला और विजय श्री मंच पर भव्य सांस्कृतिक जैसे आयोजन नहीं होंगे। डीसीएम की रामलीला एवं रावण-दहन इस मेले के प्रमुख आकर्षण के केन्द्र होते थे और उसे देखने के लिए हर साल बड़ी संख्या में भीड़ उमड़ती थी।

कोटा में दशहरा मेला आयोजन की एक सदी से भी ज्यादा पुरानी परंपरा का इस साल कोरोना संक्रमण कहर के का निर्वह्न नहीं हो पायेगा। हालांकि कोटा में दशहरा का आयोजन को रियासत काल में बूंदी के बाद कोटा में हाडा राजवंश के राज्य की स्थापना के साथ ही शुरू हो गया था।

कोटा के जाने-माने इतिहासकार डॉ जगत नारायण की पुस्तक ‘महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय एवं उनका समय’ के अनुसार कोटा की एक राज्य के रूप में स्थापना 1631 में दिल्ली के तत्कालीन मुगल बादशाह शाहजहां के शाही फरमान के साथ हुई थी। तब कोटा राज्य की बागडोर राव माधो सिंह के हाथों में थी जिन्होंने शाहजहां के लिए मध्य एशिया में कई प्रमुख लड़ाइयां लड़ी तथा वहां कुछ समय तक वे शाहजहां की सेना का सेनानायक का पद भी उन्होंने संभाला।

कोटा में सर्वप्रथम दशहरे के अवसर पर एक संक्षिप्त तीन दिवसीय मेले के आयोजन की परंपरा कोटा के महाराव उम्मेद सिंह प्रथम के शासनकाल के दौरान वर्ष 1892 में शुरू हुई थी। यानी यह मेला पिछले 126 सालों से अनवरत जारी रहा था। हालांकि वर्ष 1989 में इस मेले में आंशिक बाधा उस में आई थी उस साल छह सितंबर को सांप्रदायिक दंगे के बाद कोटा में तनाव का माहौल था।

इसके बावजूद तत्कालीन नगर परिषद प्रशासन ने रियासत काल से चली आ रही परंपरा को निभाने के लिए भव्य तरीके से मेले के आयोजन का फैसला किया और यह मेला शुरू हुआ भी लेकिन कुछ ही दिन चलने के बाद मेले के आयोजन के दौरान किसी अनहोनी की आशंका को देखते हुए तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट ने बीच में ही अचानक दशहरा मेले बंद करने की घोषणा कर दी थी और उसके बाद अफरातफरी के माहौल के बीच स्थानीय और देश के विभिन्न हिस्सों से आए व्यापारियों -कारोबारियों को अपने प्रतिष्ठान-दुकानों को समेटना पड़ा था।

ऐसा पहली बार हुआ था जबकि इससे पहले वर्ष 1932 और 1986 की कोटा में आई भीषण बाढ़ और वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान के इन्हीं दिनों में हुए युद्ध के दौरान भी यह परंपरा नहीं टूटी थी और दशहरे मेले का आयोजन हुआ था। हालांकि युद्ध के समय मेला स्थल को बदल दिया गया था लेकिन एक विचित्र किस्म की और अब तक पहेली बनी हुई इस बीमारी ने इस ऐतिहासिक परंपरा को तोड़ने के कगार पर पहुंचा दिया है।