कमल जयंत (वरिष्ठ पत्रकार)। यूपी विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त पाने के बाद बसपा नेतृत्व ने पहले की तरह इस बार भी हार का ठीकरा मुस्लिमों पर फोड़ने की कोशिश की है, चुनाव में पार्टी की अबतक की सबसे बुरी हार के पीछे केवल मुस्लिमों को ही दोषी ठहराना उचित नहीं है, बसपा नेतृत्व को यह भी सोचना चाहिए कि पार्टी को मुस्लिम समाज ने पूरी तरह से क्यों नकार दिया। वर्ष 2007 में राज्य में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद से लेकर अबतक पार्टी ने बहुजन समाज जिनमें मुस्लिम भी शामिल हैं, इन वर्ग के नेताओं को पार्टी से जोड़े रखने के लिए कोई भी प्रभावी कदम नहीं उठाये गए बल्कि इन वर्ग के अधिकांश नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया, या पार्टी नेतृत्व के व्यवहार से असंतुष्ट होकर काफी नेताओं ने पार्टी से किनारा कर लिया और दूसरे दलों में चले गए। वहीँ दूसरी तरफ मायावती जी ने अपने नये फार्मूले के तहत बहुजन से सर्वजन को जोड़ने का अभियान शुरू किया, जिसका नतीजा रहा कि सर्वजन के लोग पार्टी से जुड़े नहीं और बहुजन संमाज के लोग अपनी नेता के इस कृत्य से दुखी होकर निष्क्रिय हो गए और इसी का नतीजा रहा कि पार्टी ने जहाँ से अपना सफ़र शुरू किया था, देखते ही देखते इस चुनाव में वह फिर वहीँ पहुँच गयी। हार के कारणों की समीक्षा करने के बजाय बसपा प्रमुख ने अपनी करारी हार के लिए मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहरा दिया, जबकि उन्हें इस बात की भी मीमांशा करनी चाहिए कि जिस ब्राहमण वोट के सहारे वह सत्ता में आने का दिवास्वप्न देख रहीं थीं, उस ब्राहमण समाज ने बसपा को सिरे से क्यों नकार दिया।
यूपी के वर्तमान विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो पता चलता है कि बसपा ने सर्वसमाज के सहारे राज्य की सत्ता पाने का जो सपना देखा था, वह तो फिलहाल दूर की कौड़ी था, लेकिन पार्टी अपने जनाधार को बचाने में भी सफल नहीं हो पाई है, बसपा को इस बार मायावती के नेतृत्व में महज 12 प्रतिशत वोट और एक सीट पाकर ही संतोष करना पड़ा, तमाम बड़े-बड़े सियासी विश्लेषक भी यही कह रहे थे कि इस चुनाव में बसपा को अंडर स्टीमेट नहीं किया जा सकता, लेकिन सभी के अनुमान गलत निकले, इसके पीछे मुख्य वजह यह रही कि शायद ये विश्लेषक बदले हुए राजनीतिक परिद्रश्य में भी दलितों को बसपा के साथ जोड़कर देख रहे थे। इस बार पार्टी का कट्टर समर्थक आधार वोट बैंक चमार-जाटव भी पार्टी से टूटकर सपा गठबंधन के साथ ज्यादा गया, जबकि कुछ फीसदी भाजपा में भी गया। वैसे इस सम्बन्ध में सामाजिक संस्था बहुजन भारत के अध्यक्ष और पूर्व आईएएस कुंवर फ़तेह बहदुर का कहना है कि बहुजन नायक कांशीराम जी ने भारतीय संविधान के आधार पर देश के वचित और शोषित दलित, पिछड़ा वर्ग के साथ ही अल्पसंख्यकों को उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए ही बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था, लेकिन मायावती जी ने इस वर्ग को दरकिनार करके सर्वसमाज बनाने की जो कोरी कल्पना की, उसी का नतीजा रहा कि आज बसपा सियासी तौर पर सबसे ख़राब स्थिति में है। कुंवर फ़तेह बहादुर के मुताबिक मायावती जी ने पहले की तरह ही इस बार भी यह कहने में संकोच नहीं किया और परिणाम आते ही कह दिया कि उनको मुस्लिमों ने वोट नहीं दिया, लेकिन मायावती जी को इसकी भी समीक्षा करनी चाहिए कि वह ब्राहमण और दलित वोटों के गठजोड़ के सहारे सरकार बनाने की बात कर रहीं थीं, इस चुनाव में ब्राहमणों ने उन्हें क्यों वोट नहीं दिया, और एकतरफा ब्राहमण भाजपा में क्यों चला गया, यही स्थिति अन्य सवर्ण वोटों की भी है, ऐसे में वह सवर्णों के बसपा को वोट ना मिलने पर चुप क्यों हैं, उन्हें इसपर भी अपनी राय जरूर रखनी चाहिए।
वैसे मुस्लिम समाज के बसपा को वोट ना देना तो पहले से ही तय था और ऐसा हुआ भी। लेकिन बसपा के वोट बैंक में आई भारी गिरावट पर नजर डालें तो पता चलता है कि बहुजन नायक कांशीराम जी ने मायावती जी को बहुजन समाज को जोड़कर पार्टी की बागडोर सौंपी थी, लेकिन वह बहुजन समाज को तो जोड़े नहीं रख पायीं, उलटे सर्वसमाज को जोड़ने के अभिया में जुट गयीं, जिसका नतीजा इस चुनाव में देखने को मिला है। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि बसपा के वोटों में गिरावट कैसे आई और बसपा का आधार वोट कहे जाने वाला चमार-जाटव भी किन कारणों के चलते बसपा से अलग हुआ और इसका फायदा किसे ज्यादा मिला। अभी तक कहा जा रहा है कि बसपा के कारण भाजपा जीती है। लेकिन वोटों के प्रतिशत के अनुसार सपा को पिछले चुनाव से करीब दस प्रतिशत ज्यादा वोट मिले। जबकि भाजपा को केवल डेढ़ प्रतिशत ही ज्यादा वोट मिले। लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी भाजपा सपा के वोट शेयर में आये उछाल से परेशान है। अभी विस्तृत समीक्षा होनी है लेकिन इसमें दो राय नहीं कि बसपा का बहुत बड़ा वोट प्रतिशत सपा की ओर शिफ्ट हुआ है। बसपा के वोट में करीब 10 फीसदी की गिरावट आई है। भाजपा के वोट में केवल डेढ़ फीसदी के आसपास बढ़ोतरी हुई है। ऐसे में अनुमान यही है कि बसपा से टूटे वोट भाजपा और सपा दोनों की ओर गए होंगे, लेकिन बसपा के वोट बैंक में अब तक की सबसे बड़ी टूट देखने को मिली है। ऐसे में लोकसभा चुनाव की तैयारी में अभी से जुटी भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि अम्बेडकरवादियों को समाजवादी होने से रोके। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद बसपा के एकतरफा गठबंधन तोड़ने के बाद से ही बसपा के वोट बैंक को समेटने की कोशिशें शुरू कर दी थीं और संविधान बचाने के लिए समाजवादियों और अम्बेडकरवादियों को एकजुट करने की जो कोशिश की, इस चुनाव में रंग लाती दिखी, इसका फायदा भी उन्हें मिला। बसपा से टूटकर जो वोट बैंक अलग हुआ उसने सपा की ओर भी रूख किया है। अब जबकि बसपा और टूटती ही जायेगी तो भाजपा के सामने ये संकट होगा कि उस वोट बैंक को सपा के पास जाने से कैसे रोके।
कमल जयंत (वरिष्ठ पत्रकार)।