मथुरा, दीपावली के अवसर पर मनाए जाने वाले पंच महापर्वों में एक गोवर्धन पूजा पर देश विदेश से तीर्थयात्री गिरिराज जी की ओर चुम्बक की तरह खिंचे चले आते हैं। गोवर्धन पूजा दो नवम्बर को मनाई जाएगी।
इस दिन गोवर्धन की तलहटी में आपसी सौहार्द्र का संगम दिखाई पड़ता है। अवांछनीय तत्वों की गतिविधियों को रोकने के लिए अन्नकूट के दिन गोवर्धन में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गए हैं।
गोवर्धन पूजा के पीछे पांच हजार वर्ष से अधिक पहले की वह घटना है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने सात दिन सात रात अनवरत रूप से गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उंगली पर धारण कर ब्रजवासियों की इन्द्र के कोप से रक्षा की थी।ब्रजवासी हर साल कान्हा की उस कृपा को जोर शोर से न केवल याद करते हैं बल्कि इस दिवस को महापर्व के रूप में मनाते हैं।
ब्रज के तपस्वी विरक्त संत नागरीदास बाबा ने बताया कि दीपावली के बाद जब ब्रजवासी हर साल की तरह ही इन्द्र की पूजा करने की तैयारी कर रहे थे तो कान्हा ने नन्दबाबा से कहा था कि इन्द्र की पूजा की जगह गोवर्धन पर्वत की यदि पूजा की जाय तो अधिक अच्छा होगा क्योंकि गोवर्धन गायों के लिए चारा देता है और ब्रजवासियों के लिए अन्न आदि देता है। कान्हा की बात नन्दबाबा की समझ में आ गई और उन्होंने सभी ब्रजवासियों को इकट्ठा करके गोवर्धन की पूजा करने की सलाह दी और कहा कि गोवर्धन वास्तव में पूजनीय है क्योंकि वह ब्रजवासियों और उनकी गायों को सब कुछ देता है।
नन्दबाबा की सलाह मानकर उसके बाद ब्रजवासियों ने धूमधाम से गोवर्धन पर्वत की पूजा की।ब्रजवासियों के अन्दर यह भाव जागृत करने के लिए कि उनकी पूजा से गोवर्धन महाराज अति प्रसन्न हैं तथा वे उनकी पूजा को स्वीकार कर रहे हैं श्रीकृष्ण एक रूप से गोवर्धन पर्वत में प्रवेश कर गए और दूसरे रूप में पास में खड़े होकर ब्रजवासियों को पूजा के लिए नाना प्रकार के पकवान लाने के लिए प्रेरित करने लगे। ब्रजवासी जो भोग लाते थे गोवर्धन के अन्दर बैठे कान्हा उसे बराबर अरोग रहे थे।
तपस्वी संत ने बताया कि उधर अपनी पूजा बन्द होने से कुपित इन्द्र ने अपने संवर्तक मेघों को आदेश दिया कि वे इतनी तेज बारिश करें कि ब्रजमंडल डूब जाय। मूसलाधार बारिश से परेशान ब्रजवासी जब कान्हा के पास आए तो कान्हा ने गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उंगली पर धारण कर लिया और ब्रजवासियों से कहा कि वे अपना सामान तथा गाएं लेकर गोवर्धन पर्वत के नीचे आ जायं।उन्होंने ब्रजवासियों से यह भी कहा कि वे भी अपनी लाठी गोवर्धन पर्वत के नीचे लगा दें जिससे पर्वत गिरने न पाये। उस घटना को याद कर ब्रजवासी आज भी कहते हैं ’’थोरो थोरो देव सहारो गिरना परे गोवर्धन भारो’’ ।
इसके बाद कान्हा ने गोवर्धन पर्वत को सात दिन और सात रात अपनी उंगली पर धारण किया। ’’नख पै गिरवर लीनो धार कन्हैया मेरो वारो’’।मूसलाधार बारिश का ब्रजवासियों पर असर न होता देख इन्द्र स्वयं गोवर्धन आया और जब उसने देखा की यह तो कान्हा की लीला है तो वह हाथ जोड़कर कान्हा के सामने खड़ा हो गया और श्रीकृष्ण से माफी मांगने लगा। कान्हा ने इसके बाद उसे माफ कर दिया उधर सुरभि गाय कान्हा के इस कार्य से इतना खुश हुई कि उसने अपने दुग्ध से कान्हा का अभिषेक किया। जिस स्थान पर सुरभि गाय ने कान्हा का अभिषेक किया था वह स्थान आज भी गोवर्धन परिक्रमा में अति पूजित है। इसके बाद ब्रजवासियों ने नाना प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा की थी ।
दानघाटी मन्दिर के सेवायत आचार्य मथुरा प्रसाद कौशिक ने बताया कि चूंकि उस समय बनाए गए व्यंजनों की संख्या 56 थी इसलिए उसके बाद से ही ठाकुर को छप्पन भोग अर्पित करना सबसे बड़ी आराधना माना जाने लगा। इस दिन ब्रजवासियों ने द्वापर में ठाकुर को अपने घर में बनाई गई सामग्री अपिर्त करने के बाद गिर्राज परिक्रमा भी की थी इसलिए इस दिन गिर्राज की परिक्रमा करने की होड़ लग जाती है जहां अधिकांश भक्त गिर्राज की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं वहीं भक्तों का एक बड़ा समूह इस दिन धारा परिक्रमा यानी दूध की धार से भी परिक्रमा करता है।इस दिन गिर्राज जी को अन्नकूट का भोग लगता है जिसमें कुटा हुआ बाजरा, मूंग, कढ़ी, चावल, कई प्रकार की सब्जियां, पूरी, पुआ ,कचैड़ी, खीर प्रमुख रूप से होते है।
इस दिन ही विदेशी कृष्ण भक्त सिर पर नाना प्रकार के व्यंजन रखकर गाते हुए गिरिराज जी तक जाते हैं और फिर विधि विधान से गिरिराज जी की पूजा करते हैं तथा परिक्रमा भी करते हैं। कुल मिलाकर विभिन्न प्रांतो से आए श्रद्धालु अपने प्रांत की वेशभूषा में जहां गाते नाचते परिक्रमा करते हैं वहीं विदेशी कृष्ण भक्त भी पूरे भक्ति भाव से परिक्रमा करते है ं।इस दिन गोवर्धन में लघु भारत के ऐसे दर्शन होते हैं जहां पर आपसी प्रेम और सौहार्द्र की वर्षा होती है।