अपने मायके में ही बेगारी हो रही है मिर्जापुर की कजरी

मिर्जापुर, मिर्जापुर की कजरी अपने मायके में ही बेगानी होती जा रही है। सावन बीत गया मगर गांवों में अजब सन्नाटा है। सावन के झूले नही पड़े हैं। सोमवार को जगरन कजरी का मुख्य पर्व है, पर कही कोई सनसनाहट नही है।

वर्षा गीत के रूप में देश में जाने जाने वाली मिर्जापुरी कजरी वर्षा की प्रथम फुहार के साथ शुरू हो जाती है। इसी के साथ ही गांवों के चौपालों पर पराम्परिक कजरी का आनंद दायक खेल शुरू हो जाता है। कजरी को भी मानसून का बेसब्री इंतजार रहता है।इस बार मानसून जम कर बरसे है। किसानों के चेहरे पर प्रसन्नता स्पष्ट झलकती है मगर लोक संस्कृति के प्रति विमोह समझ के परे है। शताब्दियों पुरानी लड़कियों को मायके बुलाने की परम्परा को झटका लगा है। झूलों की कजरी अतित का विषय बन रही है। चौपालों पर ढुनमुनिया कजरी नृत्य देखने को लोग तरस जा रहे हैं।

दरअसल,वर्षा, कजरी और स्थानीय सावनी मेले एक दूसरे के पूरक हैं। वर्षा में कजरी बनती है और इन मेलों में उसे स्वर मिलता है। जिले में सावन भादो मास में कही न कही मेले का आयोजन होता है। कजरी सावन भादो मास में उत्सव का अवसर होता है । जानकारों के अनुसार जिले में सैकड़ों छोटे बड़े मेले कहीं न कहीं लगते हैं। मेलों में भीड़ कम हुई है। कजरी गायन न पुरूष टोली द्वारा न महिलाओं का सामूहिक कजरी दिखा। बाढ़ ने जन जीवन को प्रभावित कर रखा है। अखाड़ों की निशकृयता समझ के परे है।

इस लोक संस्कृति के गिरावट के क‌ई कारण गिनाए जा रहे हैं। अधिकतर लोग आधुनिकता एवं मीडिया को दोष देते हैं। कुछ लोग इस लोक परम्परा को नून,तेल लकड़ी का फेर बताते हैं। कजरी के जानकार साहित्यकार बृजदेव पांडे कहते हैं कि मां विंध्यवासिनी देवी के जन्मदिन के उत्सव के लिए शुरू हुई कजरी ने लम्बा आकाश तय किया। इस संस्कृति ने जन जन को जोड़ दिया था।अब भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए जैसे लोगों के पास न अवसर है न अवकाश।रही सही कसर दृश्य श्रव्य माध्यमो ने पूरी कर दी है।

कजरी के गिरावट पर चाहें जो कारण बताये जायें पर‌ आवश्कता इस बात कि है लोककंठ की श्रंगार इस स्वर धारा को संरक्षित और सुरक्षित की जाय। वस्तुत़ कजरी को बचाना लोकस्वर को ही बचाना है।

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