आभूषणों में कानों के कुंडल का अलग ही महत्व है। सौन्दर्य के लिए कान में छेद कर कुंडल या बाली पहनी जाती है। आजकल कानों में एक से ज्यादा बालियां पहनने का चलन बढ़ गया है, इसके लिए कान को जगह−जगह से छिदवाया जाता है। इतना ही नहीं, आजकल पलकों तथा नाभि पर भी छिदा लेने का फैशन है। यह चलन महिलाओं में ही नहीं पुरुषों में भी बढ़ रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार, कान को चार−पांच स्थानों पर छिदा लेने से हमारा तांत्रिका तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र, त्वचा तथा आंतरिक कान प्रभावित हो सकते हैं। यही नहीं, कान छिदाकर उसमें धातु या प्लास्टिक की बाली या कुंडल पहनना हमारी सुनने की शक्ति और मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है। एक अनुमान के अनुसार, लगभग 6 प्रतिशत लोग गंभीर अवस्था में हैं, धीरे−धीरे उनकी सुनने की क्षमता कम होती जा रही है।
हमारे शरीर में बहुत महीन और संवेदी तंत्रिकाओं को जाल बिछा हुआ है। इसी तंत्रिकाओं के जाल के द्वारा त्वचा में जरा से स्पर्श की भी सूचना मस्तिष्क को भेजी जाती है। हमारे शरीर की सबसे छोटी हड्डी कान में ही होती है। परन्तु इसकी कार्य प्रणाली आश्चर्यजनक होती है। कान को बाहरी भाग जिसे छेदा जाता है उसके ठीक नीचे की ओर सुरंग जैसा भाग होता है जहां सफाई के लिए रोएं और मोम होते हैं। इसके बाद एक ड्रम जैसा भाग होता है जो हर आवाज को लगभग 22 गुना बढ़ाकर हमारे मस्तिष्क तक पहुंचता है। वास्तव में कान के इसी भाग से बारीक तथा संवेदी तंत्रिकाओं को जाल शुरू होता है जो बाहर से प्राप्त संदेशों को मस्तिष्क तक ले जाते हैं। हमारे कान में कर्णजाल में लूप जैसी आकृति की नलियां होती हैं।
जब ध्वनि तरंगें ड्रम के पीछे से आती हैं तो वह इस कर्णजल को हिला देती हैं जिससे तरंग उत्पन्न होती है। यही तरंग आवाज की लहर बनकर इस लूपनुमा आकृतियों तक पहुंचती है जो इन तंरगों को परिष्कृत कर उनसे जुड़ी हुई तंत्रिकाओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुंचा देता है। विशेषज्ञों के अनुसार बाहरी कान पर जगह−जगह छिदवाने से तंत्रिका जाल जगह−जगह से क्षतिग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार से क्षतिग्रस्त होने का प्रभाव उसकी बारीकी के साथ−साथ उसकी संवेदनशीलता पर भी पड़ता है। तंत्रिकाओं की संवदेनशीलता प्रभावित होने से ध्वनि सही आवृत्ति में कान तक नहीं पहुंचा पाती। डॉक्टरों के अनुसार, टिनाइटिस रोग से पीड़ित व्यक्ति स्वस्थ कान वालों की अपेक्षा किसी भी ध्वनि को स्पष्ट तौर पर नहीं सुन पाते।
विभिन्न परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि वह महिला जिसके कान में अनेक छेद हों उसकी स्पष्ट ध्वनि ग्रहण की क्षमता सामान्य कान वाली महिलाओं का अपेक्षा कम होती है। परीक्षणों में यह भी बात सामने आई कि टिनाइटिस रोग अर्थात कान के छेदों के कारण उत्पन्न रोग से पीड़ित व्यक्ति के कानों तक ध्वनि एक तारतम्य में नहीं पहुंचती अपितु वह क्लिष्ट और अस्पष्ट ध्वनि के रूप में वहां पहुंचती है जो लगभग फटी हुई होती है। आरंभ में इस रोग का पता नहीं चल पाता और रोगी को रोग की गंभीरता का अहसास तभी हो पाता है जबकि लगभग बहरेपन की स्थिति आ चुकी होती है। कई बार ध्वनि तरंगों में फैलाव की वजह से रोगी को दोहरी ध्वनि भी सुनाई देती है। गंभीर अवस्था मे आवाज गूंजती सुनाई देती है जिससे मूल आवाज मस्तिष्क तक पहुंच ही नहीं पाती।
टिनाइटिस रोग से पीड़ित व्यक्ति अक्सर उन सुरीली धुनों में, जिनमें थोड़ा−थोड़ा अंतर होता है, अंतर नहीं कर सकते जबकि सामान्य कानों वाले लोग आसानी से इस अंतर को पकड़ सकते हैं। टिनाइटिस रोग से केवल तंत्रिका तंत्र ही नहीं बल्कि कान की त्वचा के रंध्र भी प्रभावित होते हैं। कई बार कान छिद जाने पर पकने लगता है। इस प्रकार त्वचा के ऊतकों के क्षतिग्रस्त होने से उसमें सड़न पैदा होती है और पस पड़ जाता है। छिदे हुए कानों में इकट्ठे हुए मैल में भी रोगाणु पनप सकते हैं। कई बार कान छिदाते समय बारीक रक्तवाहिनियां फट जाती हैं जिससे रक्त का बहाव नहीं हो पाता और खून निकल आता है। कान हमारी महत्वपूर्ण ज्ञानेन्द्री है जिसकी सुन्दरता उसके साफ रहने और सुनने की क्षमता बने रहने में है न कि अनेक छेदों में पहने गए आभूषणों से। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि युवा अवस्था में सुन्दरता बढ़ाने वाले ये छेद उम्र के साथ−साथ बड़े होते जाते हैं और खूबसूरती को बिगाड़ते भी हैं।