दबे- कुचले, हाशिये के समाज के लोगों की प्रेरणा बनीं झलकारी बाई

लखनऊ, एक स्त्री जिसके हौसले और बहादुरी को इतिहास के दस्तावेज़ों में जगह नहीं मिली लेकिन आम लोगों ने उसे अपने दिलों में जगह दी। क़िस्से – कहानियों- उपन्यासों- कविताओं के ज़रिये पीढ़ी दर पीढ़ी ज़िंदा रखा।  सालों बाद उसकी कहानियाँ दबे- कुचले, हाशिये के समाज के लोगों की प्रेरणा बनीं। तब ही तो घोड़े पर सवार उनकी मूर्तियाँ आज कई शहरों में दिख जाती हैं। ये वीर महिला झलकारी बाई हैं।  ऐसी महान वीरांगना महिला जिसे पूरे भारतवासियों को गर्व महसूस होता है, ऐसी झांसी की झलकारी

झाँसी के पास भोजला गाँव है. उस गाँव के लोगों का कहना है कि झलकारी बाई इसी गाँव से थीं. परिवार पेशे से बुनकर था. बहुत आम और ग़रीब परिवार की थीं.
‘झलकारी बाई’ का जन्म बुंदेलखंड के एक गांव में 22 नवंबर को एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवा उर्फ मूलचंद कोली और माता जमुनाबाई उर्फ धनिया था।

बचपन से ही झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। वह एक वीर साहसी महिला थी। एक अन्य अवसर पर जब गांव के एक व्यवसायी पर डकैतों के एक गिरोह ने हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उनकी इस बहादुरी से खुश होकर गांव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, जो बहुत बहादुर था।  पूरे गांव वालों ने झलकारी बाई के विवाह में भरपूर सहयोग दिया। विवाह पश्चात वह पूरन के साथ झांसी आ गई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में वे महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं, इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं।

सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ, स्वामीभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था। रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अपने अंतिम समय अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उस युद्ध के दौरान एक गोला झलकारी बाई को भी लगा और ‘जय भवानी’ कहती हुई वे जमीन पर गिर पड़ीं।

हालाँकि, उस दौर के अब तक मिले ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में झलकारी बाई का नाम नहीं आता है.1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी का ज़िक्र आता है तो झाँसी की रानी का ज़िक्र लाज़िमी तौर पर आता है. ऐसा कहा जाता है कि रानी झाँसी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर झलकारी बाई भी अंग्रेज़ों से लड़ीं थीं.

अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की किताबों में समाज के दबे-कुचले- वंचित समुदायों के लोग लगभग ग़ायब हैं. रानी लक्ष्मीबाई का नाम तो हममें से ज़्यादातर लोग छुटपन से जानते और सुनते आये हैं लेकिन झलकारी बाई का नाम इतिहास की किताबों में नहीं मिलता है.

ऐसे परिवारों के बच्चे-बच्चियाँ को इतिहास में कब जगह मिली है? इनमें वंचित समाज भी हैं और महिलाएँ भी. झलकारी बाई दोनों का प्रतिनिधित्व करती हैं.

झलकारी बाई रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में रहीं और महिला शाखा में दुर्गा दल की सेनापति रह चुकी ऐसी महान वीरांगना झलकारी बाई सन् 1857 की जंग-ए-आजादी का एक ऐसा नाम, जिसके हौसले और बहादुरी ने भारत के इतिहास को गौरवान्वित किया है।

झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। झलकारी बाई के सम्मान में सन् 2001 में डाक टिकट भी जारी किया गया। भारत की संपूर्ण आजादी के सपने को पूरा करने के लिए प्राणों का बलिदान करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का नाम आज भी इतिहास के पन्नों में अपनी आभा बिखेरता है। उनका निधन 4 अप्रैल 1857 को झांसी में हुआ था।

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