मऊ , बाटी चोखा एक ऐसा व्यंजन जिसका नाम सुनते पूर्वांचल के लोगों में खाने की ललक जाग उठती है। इसकी लोकप्रियता व पहुंच का आलम यह है कि यदि इसे दिहाड़ी मजदूर पसंद करता है तो वहीं अमीर व सुविधा सम्पन्न व तथाकथित रईस धनाढ्य भी शौक से बनाना व खाना पसंद करते हैं।
देखा जाए तो बाटी चोखा ही एक ऐसा व्यंजन है जिसके भोज में इसे बनाते समय आयोजक से लेकर आगंतुक तक की सहभागिता शामिल रहती है। बाटी चोखा के महत्ता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पूर्वांचल के लगभग सभी जिलों में गांव गिराव से लेकर शहरों तक बड़े भोज आयोजन के बाद बाटी चोखा का भोज देकर ही आयोजन की पूर्णता मानी जाती है। ऐसे में बाटी-चोखा व्यंजन की उत्पत्ति के सम्बंध में बात करते हैं।
जानकारी के अनुसार बाटी मूलत राजस्थान का पारम्परिक व्यंजन है। इसका इतिहास करीब 1300 वर्ष पुराना है। 8वीं सदी में राजस्थान में बप्पा रावल ने मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश की स्थापना की। उस समय राजपूत सरदार अपने साम्राज्यों का विस्तार कर रहे थे। इसके लिए युद्ध भी होते थे। उस दौरान ही बाटी बनने की शुरुआत हुई। वस्तुतः युद्ध के समय सहस्रों सैनिकों के लिए भोजन का प्रबन्ध करना चुनौतीपूर्ण कार्य होता था। कई बार सैनिक भूखे-प्यासे ही रह जाते थे। ऐसे ही एक बार एक सैनिक ने सुबह रोटी के लिए आटा गूँथा, लेकिन रोटी बनने से पहले युद्ध की घड़ी आ गयी और सैनिक आटे की लोइयाँ तप्त मरुस्थल में छोड़कर रणभूमि में चले गये। शाम को जब वे लौटे तो लोइयाँ तप्त रेत में दब चुकी थीं। जब उन्हें रेत से बाहर से निकाला तो दिनभर सूर्य और रेत की तपन से वे पूरी तरह सिंक चुकी थी। थककर चूर हो चुके सैनिकों ने उसे खाकर देखा तो वह बहुत स्वादिष्ट लगी। उसे पूरी सेना ने आपस में बाँटकर खाया। बस यहीं इसका अविष्कार हुआ और नाम मिला बाटी।
उसके बाद बाटी युद्ध के दौरान खाया जानेवाला पसन्दीदा भोजन बन गया। अब रोज़ सुबह सैनिक आटे की गोलियाँ बनाकर रेत में दबाकर चले जाते और शाम को लौटकर उन्हें चटनी, अचार और रणभूमि में उपलब्ध ऊँटनी एवं बकरी के दूध से बनी दही के साथ खाते। इस भोजन से उन्हें ऊर्जा भी मिलती और समय भी बचता। इसके बाद शनैः शनैः यह पकवान पूरे राज्य में प्रसिद्ध हो गया और यह कण्डों पर बनने लगा।