झांसी, उत्तर प्रदेश के झांसी जिले में एक छोटा सा कस्बा है “ रानीपुर”। यह कस्बा ज़रूर छोटा सा है लेकिन यहां कई पीढ़ियों से लोग लगातार उस पहल को साकार रूप दे रहे हैं ,जो आज का लोकप्रिय विचार है, “बेकार को आकार”।
बेकार को आकार आज के समय का वह जनप्रिय जुमला है, जिसकी धूम चारों ओर मची है। जिसे देखो वह रीयूज़ और रीसाइकिल के तरीकों की पैराकारी करता नज़र आता है लेकिन रानीपुर कस्बे के बुनकरों की कई पीढ़ियां इस काम को लगातार करती आ रहीं हैं और इस काम के जरिए न केवल वह बेकार को आकार दे रहे हैं बल्कि अपने पैतृक स्थान पर पैतृक धंधे को अपनाकर स्वरोजगार कर रहे हैं।
एक प्रकार से देखा जाए तो रानीपुर के यह बुनकर बुंदेलखंड की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक “ पलायन” के का स्थायी समाधान पेश करते नजर आते हैं । यह बुनकर बता रहे हैं किस तरह अपने पुश्तैनी क्षेत्र में रहकर पुश्तैनी काम को कर सम्मानजनक रूप से अपने क्षेत्र के संसाधनों को वहीं के विकास के लिए किस तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है।
रानीपुर के बुनकर बड़ी बड़ी कपडे की फैक्ट्रियों से कतरनों के रूप में बचे माल को अपने यहां मंगाते हैं और फिर इन कतरानों को हथरघे पर इस्तेमाल कर गलीचे, दरी आदि बनाने का काम किया जाता है1
इस काम को कई पुश्तों से करने वाले जयप्रकाश ने बताया कि वह सूरत और मुम्बई आदि जगहों से सूटिंग शर्टिंग फैक्ट्रियों से कतरन मंगाते हैं । इन कतरनों से पहले पिंडा बनाया जाता है फिर इसे एक छोटी लकड़ी की ताड़ी पर इस कतरन को लपेटकर हथकरघे में ताना बाना पर चढाया जाता है। इन्हीं बची हुई कतरनों को फिर ताने बाने की मदद से सुंदर और आर्कषक दरी और गलीचों में बदल दिया जाता है।
जयप्रकाश ने बताया कि यह उनका पैतृक धंधा है। उनकी चौथी पीढ़ी भी इस काम में लगी है । घर पर ही उन्हें अपने इस पैतृक धंधे को अपनानकर स्वरोजगार हासिल है।