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भारतीय राजनीति में, टर्निंग प्वाइंट साबित हो सकता है, मायावती का इस्तीफा

लखनऊ, मॉनसून सत्र के दूसरे दिन, दलित विरोधी हिंसा पर बोलने से रोके जाने पर बसपा अध्यक्ष मायावती के राज्यसभा से इस्तीफा देने पर एक भूचाल सा आ गया है.

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बीजेपी के लिये स्थिति सबसे अधिक असहज हो गयी है. मायावती ने इस्तीफा देकर बीजेपी को उस वक्त झटका दिया है जब बीजेपी दलित चेहरे को राष्ट्रपति बनाने के ज़रिए अपने को दलितों का हितैषी दिखाना चाह रही है.

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मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा देकर यह संदेश देने की कोशिश की है कि सदन का सदस्य होते हुए भी उन्हें बीजेपी ने दलितों के अत्याचार और हिंसा पर बोलने नहीं दिया. मायावती का यह गुस्सा कहीं न कहीं उन्हें फिर दलित एजेंडे से जोड़ेगा. मायावती ने इस्तीफा देकर यह भी दर्शाने की कोशिश की हैं कि वह दलितों के लिए इतना बड़ा त्याग भी कर सकती हैं कि राज्य सभा का पद उनके लिये कुछ भी नही है. यह बीएसपी के वोटरों के लिए  एक बड़ा संदेश होगा.

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यूपी के पिछले दो विधानसभा चुनाव , अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव और एक संसदीय चुनाव में हार का सामना कर चुकी मायावती को इस बात का अंदाजा है कि कैसे दलित वोटर बीएसपी के हाथ से फिसल रहा है. वहीं बीजेपी ने राष्ट्रपति पद के लिए उत्तर प्रदेश के ही एक दलित चेहरे रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी बनाकर मायावती को और असमंजस में डाल दिया. उधर, भीम आर्मी का युवा नेता चंद्रशेखर सहारनपुर जातीय दंगों के बाद दलितों मे हीरो बनकर उभरा है.

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इसकी काट के लिये मायादती ने बहुत सधा दांव चला और बीजेपी उसमे फंस गई है. मायावती ने राष्ट्रपति चुनाव के दिन कहा  कि कोई भी जीते, पर यह साफ है कि एक दलित इस देश का प्रेसिडेंट बनने जा रहा है. यह अंबेडकर के सपने और उनकी राजनीति की बदौलत ही हो पा रहा है. दूसरे ही दिन उन्होंने दलितों के प्रति हिंसा का सवाल औऱ सहारनपुर की घटना पर बोलने की कोशिश की और ऐसा न करने देने पर सदन से इस्तीफा दे दिया.

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मायावती ने पहला साफ संदेश यह दिया कि रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी चुन कर बीजेपी दलित वोट बैंक हथियाना तो चाहती है, पर वास्तव में बीजेपी दलित विरोधी है. दूसरा दलित हितों के लिये वह कुछ भी कर सकती हैं. मायावती के लिए यह इस्तीफा कहीं से भी हार का सौदा नहीं है. वह इससे एक बार फिर न केवल चर्चा में आगयीं हैं बल्कि उन्होंने दलितों मे चेतना फूंक दी है कि दलितों की लड़ाई लड़ने वाली वह देश मे एकमात्र नेता हैं.

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राज्य सभा से उनका इस्तीफा भारत की राजनीति में एक टर्निंग प्वाइंट साबित हो सकता है. लेकिन अभी यह पहला कदम ही है. वेवे दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़ों के खिलाफ हो रहे अत्याचार के खिलाफ जितना आक्रामक होंगी, उतना उनका कद ऊपर उठेगा ।लेकिन अगर वह एेसा करने से चूकती हैं तो मामला उलटा भी हो सकता है. अतीत की गलतियों से सबक लेते हुए बडे मुद्दों पर व्यापक जन गोलबंदी के लिए उन्हे मैदान में उतरने की जरूरत है. यह वक्त मायावती के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है, वह लड़ेंगीं तो चमकेंगी.

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