Breaking News

साहित्य अकादमी: बौद्धिकों की बगावत

cs-1-2_101615051349 (1)निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहां चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ को निकले नजर चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले

वरिष्ठ साहित्यकार कृष्णा सोबती फैज अहमद फैज की इन पंक्तियों से इत्तेफाक रखते हुए कहती हैं, “यह एक लोकतांत्रिक देश है, और पिछले 65 साल में हमारे नागरिक समाज ने कई चीजें आत्मसात भी की हैं. लेखक किसी भी चीज को गहराई से देखता है. यह लेखकीय कर्म भी है. जब उसे कोई चीज परेशान करती है तो विरोध का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता कि वह खुद को मिले सम्मान को लौटा दे.”

सोबती साहित्य अकादेमी की अपनी फेलोशिप को लौटाने की घोषणा करके उन लेखकों की जमात में शरीक हो चुकी हैं जो बढ़ती असहिष्णुता और प्रोफेसर एम.एम. कलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादेमी की चुप्पी के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं. विभिन्न भाषाओं के लगभग दो दर्जन से ज्यादा लेखक अपने साहित्य अकादेमी सम्मान को लौटाने की घोषणा कर चुके हैं.

हालांकि साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इसका कोई औचित्य नहीं देखते. वे कहते हैं, “अकादेमी पुरस्कार लौटाने का कोई औचित्य नहीं है. यह पुरस्कार कृति की गुणवत्ता पर लेखकों को लेखकों का ही निर्णायक मंडल देता है. इसमें सरकार का कोई दखल नहीं होता.” केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी इसे साजिश की तरह देखती है. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने ब्लॉग में लिखा, “लेखकों के विरोध का जोर इस ओर लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में मौजूदा केंद्र सरकार के तहत असहिष्णुता का माहौल पैदा हुआ है. क्या यह बौद्धिक असहिष्णुता नहीं है? इनमें ज्यादातर लेखकों को कांग्रेस और वामपंथियों का समर्थन मिलता रहा है. क्या यह हारे हुओं की दूसरे तरीके से राजनीति करने की मिसाल नहीं है?” लेकिन ये घटनाएं बताती हैं कि बौद्धिक वर्ग समाज में बढ़ती कट्टरता को खामोशी से जज्ब करने को तैयार नहीं है.

एक कदम जो बन गया मुहिम
पुरस्कार वापस करने की शुरुआत 4 सितंबर को हिंदी कथाकार उदय प्रकाश के फेसबुक पोस्ट से हुई. उन्होंने लिखारू श्श्पिछले कुछ समय से हमारे देश में लेखकों, कलाकारों, चिंतकों और बौद्धिकों के प्रति जिस तरह का हिंसक, अपमानजनक, अवमाननापूर्ण व्यवहार लगातार हो रहा है, जिसकी ताजा कड़ी प्रख्यात लेखक और विचारक तथा साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ साहित्यकार श्री कलबुर्गी की मतांध हिंदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गई कायराना और दहशतनाक हत्या है, उसने मेरे जैसे अकेले लेखक को भीतर से हिला दिया है. अब यह चुप रहने का और मुंह सिलकर सुरक्षित छिप जाने का पल नहीं है. वरना ये खतरे बढ़ते जाएंगे. मैं साहित्यकार कलबुर्गी की हत्या के विरोध में मोहन दास नामक कृति पर 2010-11 में दिए गए साहित्य अकादेमी पुरस्कार को विनम्रता लेकिन सुचिंतित दृढ़ता के साथ लौटाता हूं.”

कलबुर्गी को 2006 में उनके निबंध संग्रह मार्ग-4 के लिए कन्नड़ का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था. 30 अगस्त को कर्नाटक के धारवाड़ में उनके घर पर गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई. इसे कथित तौर पर हिंदू कट्टरपंथी संगठनों की करतूत बताया गया. उस समय मीडिया का फोकस शीना बोरा हत्याकांड जैसे सनसनीखेज मामले पर था इसलिए कलबुर्गी की हत्या को सुर्खियों में महत्व नहीं दिया गया. मगर बौद्धिक समाज इस हत्या से संतप्त और रोष में था, वहीं कथित तौर पर संघ परिवार से जुड़े कुछ कट्टरवादी संगठनों ने लेखकों को धमकाया. बुद्धिजीवी समाज इससे और भी आहत हुआ.

इससे पहले महाराष्ट्र में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और शिवाजी पर चर्चित किताब शिवाजी कौन होता? समेत 21 किताबें लिखने वाले गोविंद पनसारे को उनकी बेबाक राय की वजह से इसी साल 20 फरवरी को हमेशा के लिए खामोश कर दिया गया. पनसारे से पहले महाराष्ट्र अंधश्रधा निर्मूलन समिति के संस्थापक अध्यक्ष नरेंद्र दाभोलकर 20 अगस्त, 2013 को कट्टरतावादियों की हिंसा के शिकार हुए थे. पनसारे और दाभोलकर, दोनों तर्कवादी थे और अंधविश्वास और रूढ़ मान्यताओं पर चोट करते थे. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार ने इसे अतिवादियों की करतूत बताया. कांग्रेस नेता माणिक राव ने दाभोलकर और पनसारे की हत्या को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अशुभ संकेत करार दिया.

रचनाकार समाज इन हत्याओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मान रहा है. कलबुर्गी की हत्या के एक महीने बाद भी किसी की गिरफ्तारी न होने पर आधा दर्जन से ज्यादा लेखकों ने कन्नड़ साहित्य परिषद को अपना सम्मान लौटा दिया. 

इस तरह बौद्धिक समाज में साहित्य अकादेमी की चुप्पी की वजह से रोष और असंतोष की चिनगारी सुलग रही थी. इस असंतोष ने उस समय सार्वजनिक रूप अख्तियार कर लिया जब 28 सितंबर को राजधानी दिल्ली के करीब दादरी में मोहम्मद अखलाक नाम के एक शख्स की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गई कि उसके घर में गोमांस होने की अफवाह उड़ाई गई. बौद्धिक समाज ने इसे बढ़ती दक्षिणपंथी असहिष्णुता का नतीजा माना. सभी सियासी जमातों ने अखलाक की हत्या को बर्बर करार दिया, लेकिन दक्षिणपंथी नेता और संगठन हत्यारों की हिमायत करते नजर आए और दुनिया के लगभग हर विषय पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस समय इनमें से किसी भी मामले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

इस घटना से व्यथित होकर रिच लाइक अस के लिए 1986 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाने वाली 88 वर्षीया नयनतारा सहगल और हिंदी के साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता अशोक वाजपेयी (कहीं नहीं वहीं, काव्य संग्रह, 1994) ने अपने पुरस्कार वापस करने की घोषणा कर दी. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की भानजी ने अपने खुले पत्र में कहा, “यह भारत को तोडऩा है. असहमति का अधिकार हमारे संविधान का अटूट अंग है.”

सहगल के बाद साहित्य अकादेमी के पुरस्कार लौटाने की घोषणाओं की झड़ी-सी लग गई. मलयालम लेखिका सारा जोसफ, हिंदी लेखिका कृष्णा सोबती, अंग्रेजी के लेखक गणेश देवी, उर्दू उपन्यासकार रहमान अब्बास, कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल, कन्नड़ उपन्यासकार कंबर वीरभद्राप्पा,  असमिया लेखक हेमेन बोर्गोहाइन और सुरजीत पातर समेत पंजाबी के नौ लेखकों और कवियों ने अपने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा कर दी.

अकादेमी के अध्यक्ष और हिंदी के साहित्यकार विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के बयान ने उन्हें शांत करने की बजाए और भड़का दिया. उन्होंने कहा, “ हालांकि वर्तमान में जो घटनाएं घटी हैं उससे भयानक घटनाएं भी अतीत में हो चुकी हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं किया गया.” उनका इशारा इमरजेंसी, 1984 के दंगों की ओर है. जब इस तरह के सवाल उठे तो सहगल ने कहा, “इमरजेंसी (जिसमें लेखकों और राजनैतिक विरोधियों को जेल में ठूंस दिया था) के बाद लोगों ने इंदिरा गांधी को उखाड़ फेंका और भारत लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष देश के तौर पर बना रहा. नरेंद्र मोदी के मौजूदा शासनकाल में असहमति के स्वरों को पूरी तरह से रौंदा जा रहा है. …आज कोई भी तब तक सुरक्षित महसूस नहीं कर सकता जब तक वह हिंदुत्व की लाइन पर न चले.”

सरकार की ओर से भी इस पर तुरंत प्रतिक्रिया आई लेकिन बहुत ही बचकानी. पर्यटन और संस्कृति राज्यमंत्री महेश शर्मा ने कहा, “अगर वे कहते हैं कि वे लिख नहीं सकते, तो उन्हें पहले लिखना छोड़ देना चाहिए. फिर हम देखेंगे.” विवाद बढऩे पर वे बयान से पलट गए. आरएसएस ने इन लेखकों को “बौद्धिकता के स्वयंभू ठेकेदार” बताया. उसके मुखपत्र पाञ्चजन्य के संपादकीय में लिखा गया है, “कुछ लेखक धर्मनिरपेक्ष संबंधी पूर्वाग्रह से पीड़ित हैं.” पत्रिका के संपादक हितेश शंकर कहते हैं, “जो लोग देशहित में साहित्य से जुड़े पुरस्कार लौटाने की बात कर रहे हैं, उनके साहित्य में देश और चरित्र उत्थान की कितनी बात है, इसकी छानबीन जरूरी है.”
उधर, शिवसेना मुंबई में कट्टरता की नई लहर पैदा कर रही थी. उसने गजल गायक गुलाम अली के कार्यक्रमों और पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री कसूरी की किताब के विमोचन का उग्र विरोध करके संघ परिवार और बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा दीं. महाराष्ट्र सरकार के आश्वासन के बावजूद गुलाम अली का कार्यक्रम रद्द हो गया और किताब का विमोचन कार्यक्रम आयोजित करने वाले लालकृष्ण आडवाणी के पूर्व सहयोगी सुधींद्र कुलकर्णी के मुंह पर शिवसेना कार्यकर्ताओं ने कालिख पोत दी. इससे कट्टरता के खिलाफ लेखकों की मुहिम को और धार मिल गई.

सवालों के घेरे में साहित्य अकादेमी
हालांकि पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों की यही पीड़ा है कि समाज में इतना कुछ घट रहा है, उसे लेकर साहित्य अकादेमी खामोश है. कुछ लेखक इस खामोशी को खतरनाक मानते हैं तो कुछ कहते हैं कि इससे अकादेमी का भविष्य अंधकार में भी जा सकता है. वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी मानते हैं कि साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष ने स्वतंत्र चिंतकों और लेखकों पर हो रहे हमलों की निंदा कर दी होती तो यह नौबत नहीं आती. वे कहते हैं, “अब भी हालात बिगड़े नहीं हैं.” त्रिपाठी यह भी बताते हैं कि वे लगभग 15 दिन पहले अपने कुछ साथियों के साथ साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष तिवारी से मिलने गए थे. वे कहते हैं, “हमने उनसे कहा था कि आप किन्हीं कारणवश हत्यारों की निंदा नहीं कर सकते, तो कोई बात नहीं. हमें एक सभागार दे दीजिए, हम इसे अंजाम देंगे. लेकिन आश्वासन के बावजूद उन्होंने इस बात को पूरा नहीं किया.” 

महात्मा गांधी से जुड़ी सामग्री की विदेशों में नीलामी के खिलाफ राष्ट्रपति को अपना पद्मश्री सम्मान वापस करने की पेशकश कर चुके वरिष्ठ कथाकार गिरिराज किशोर (ढाई घर, उपन्यास, 1992 में साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत) का नजरिया एकदम अलग है. वे मानते हैं कि साहित्य अकादेमी स्वायत्तशासी संस्था है, जिसे इस सबसे नुक्सान पहुंचेगा. वे कहते हैं, “हमें संस्थाएं बर्बाद नहीं करनी चाहिए. सरकार को इससे अच्छा मौका मिल जाएगा और वह फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआइआइ) और नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) की तरह यहां भी अपने लोग लाकर बैठा देगी.”

लेकिन फिलहाल पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों को इसकी परवाह नहीं है. 2012 का साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार पाने वाले अमन सेठी ने अपने पत्र में लिखा है, “जितनी जरूरत हमें साहित्य अकादेमी की है उससे ज्यादा जरूरत इस तरह के संस्थानों को लेखक और पत्रकारों की है. हम भाग्यशाली हैं कि हमारी पहली वफादारी अपने पाठकों के प्रति है. हम पाठकों के प्रति जवाबदेह हैं, न कि सरकारी संस्थान के प्रति.”

वैसे, पुरस्कार लौटाना किसी के लिए भी आसान नहीं होता और यह पंजाबी कथाकार 80 वर्षीया दलीप कौर टिवाणा के मामले से सिद्ध भी हो जाता है. उन्होंने पद्मश्री सम्मान लौटाने की घोषणा की है जिसे वे अपने दिल के काफी करीब मानती हैं. वे कहती हैं, “मैं न सिर्फ धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ हूं बल्कि मौजूदा सरकार की इस सोच का भी विरोध करती हूं कि वह इसलिए सब कुछ कर सकती है क्योंकि सत्ता में है.” साहित्य के इतर भी गतिविधियां गरमा रही हैं. रंगमंच कलाकार माया कृष्ण राव ने दादरी कांड के विरोध में संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार को लौटा दिया है.

उधर, अंग्रेजी के लेखक सलमान रुश्दी ने भी भारत में चल रहे लेखकों के इस अभियान के समर्थन में अपना सुर मिला दिया है. उन्होंने ट्वीट किया, “मैं साहित्य अकादेमी को लेकर विरोध जता रहे नयनतारा सहगल और अन्य कई लेखकों का समर्थन करता हूं. भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए काफी डरावना समय है.” उसके तुरंत बाद उन्होंने मोदी समर्थकों को संबोधित करके ट्वीट किया, “मैं किसी राजनैतिक पार्टी का समर्थन नहीं करता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सभी तरह के हमलों की आलोचना करता हूं. आजादी ही मेरी एकमात्र पार्टी है.”

वहीं, अकादेमी अपने फेसबुक एकाउंट के जरिए अपने पक्ष को निरंतर रखने की कोशिश कर रही है. हाल ही में अपने फेसबुक पर सर्कुलर लगाया जिसमें जानकारी दी गई थी कि 30 सितंबर को साहित्य अकादेमी की बेंगलूरू ब्रांच ने सेंट्रल कॉलेज कैंपस के सभागार में कलबुर्गी के लिए श्रद्धांजलि सभा आयोजित की थी, जिसकी अध्यक्षता साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर कंबर ने की थी.

तिवारी की दलील यह भी है कि “साहित्य अकादेमी लेखकों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की पक्षधर है. पुरस्कार लौटाकर लेखक अपनी लोकतांत्रिक संस्था के साथ अन्याय कर रहे हैं.”

यह पूछने पर कि लेखक जो पुरस्कार वापस कर रहे हैं, उन्हें अकादेमी ने स्वीकार कर लिया है? तिवारी कहते हैं, “यह कार्य अकादेमी के कार्यकारी मंडल का है. इस पर वही विचार करेगा. उस बैठक में जो तय होगा, उसके बारे में लेखकों को सूचित कर दिया जाएगा.” अकादेमी के कार्यकारी मंडल की आपात बैठक 23 अक्तूबर को बुलाई गई है.

विरोध के तरीके पर मतभेद
साहित्यकार पुरस्कार वापसी को लेकर दो धड़ों में बंटते भी नजर आ रहे हैं. वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा है कि कुछ लेखक पुरस्कार लौटाकर सुर्खियां बटोरना चाहते हैं. 1971 में कविता के नए प्रतिमान के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त नामवर ने कहा है कि विरोध के दूसरे तरीकों को अपनाना चाहिए. इसी तरह असगर वजाहत मानते हैं कि विरोध करना गलत नहीं है लेकिन यह तरीका सही नहीं है. प्रसिद्ध बांग्ला कवि नीरेंद्रनाथ चक्रवर्ती का मानना है कि यह “बेहद निंदनीय” मामले के विरोध का “बहुत कमजोर तरीका” है. साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाने वाले कवि शंखो घोष का कहना है कि पुरस्कार लौटाने की बजाए दूसरे तरीके से अपना विरोध दर्ज करना चाहिए. असम साहित्य सभा के अध्यक्ष डॉ. ध्रुबज्योति बोरा स्वायत्तशासी संस्था के “बेजा राजनीतिकरण” से चिंतित हैं. अंग्रेजी लेखक चेतन भगत ने पुरस्कार लौटाने वालों की खिल्ली उड़ाते हुए ट्वीट किया, “अच्छा तो मुझे भी साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटा देना चाहिए? अरे, मुझे तो अभी तक पुरस्कार ही नहीं
मिला.” अखलाक की हत्या पर पत्रकार तवलीन सिंह ने ट्वीट किया, “मोदी के मंत्री दादरी की घटना को “दुर्भाग्यपूर्ण” ही क्यों बता रहे हैं? बर्बरतापूर्ण, भयावह या शर्मनाक क्यों नहीं?” गौर तलब है कि खुद प्रधानमंत्री ने भी इसे “दुर्भाग्यपूर्ण” बताकर यह सवाल भी पूछ लिया कि इसके लिए केंद्र कैसे जिम्मेदार है? फिल्म अभिनेता अनुपम खेर इसे प्रधानमंत्री को शर्मिंदा करने के लिए “राजनीति से प्रेरित” मानते हैं. उनका कहना है, “जब तसलीमा नसरीन के साथ बुरा बर्ताव किया गया तो किसी ने पुरस्कार नहीं लौटाया.” लेकिन गीतकार जावेद अख्तर का मानना है, “अभी तक किसी हत्यारे की गिरफ्तारी नहीं हुई है. जो कुछ हो रहा है यह उसी दबे हुए गुस्से का इजहार है.” दूसरी ओर, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का मानना है कि कई वरिष्ठ लेखक कह रहे हैं कि सिर्फ यह नहीं होना चाहिए कि जिसने पुरस्कार लौटाया है, वही इस माहौल के विरोध में है. वे कहते हैं, “कई ऐसे लेखक हैं जो विरोध में हैं पर पुरस्कार वापस नहीं कर सकते क्योंकि हर किसी के आर्थिक हालात ऐसे नहीं होते कि वह एक बड़ी राशि को लौटा सके.”

सरकार बनाम बुद्धिजीवी

वैसे लेखकों और सरकार के संबंधों का इशारा विश्व हिंदी सम्मेलन में बखूबी मिल गया था, जिसमें सरकार पर लेखकों की उपेक्षा के आरोप लगे. विदेश राज्यमंत्री वी.के. सिंह ने कहा था, “कुछ लोगों को लग रहा होगा कि हम तो जाते थे, खाते थे, दारू पीते थे, आलेख/कविता पढ़ते थे, लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा है.” उनके इस बयान का वरिष्ठ हिंदी कवि राजेश जोशी (दो पंक्तियों के बीच, काव्य संग्रह, 2002 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार) ने विरोध किया था. उन्होंने अब अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी लौटा दिया है.

दरअसल, एनडीए सरकार के पिछले पंद्रह महीनों में कट्टरता कई रूपों में सामने आई है. कभी खान-पान को लेकर प्रतिबंध लगाए गए तो कभी “लव जेहाद”, “घर वापसी” की आंधी चली और कभी विभिन्न गंभीर बौद्धिक और शैक्षणिक संस्थाओं में नियुक्तियों का विवाद उभरा.

इसी की एक कड़ी पुणे का फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआइआइ) है, जिसके छात्रों की हड़ताल 100 दिन के आंकड़े को पार कर चुकी है. वे गजेंद्र चौहान की एफटीआइआइ चेयरमैन के तौर पर नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं. इस मुद्दे पर छात्रों के समर्थन पर आगे आए ऐक्टर-गीतकार पीयूष मिश्र कहते हैं, “हालात डराने वाले हैं. पता नहीं, आगे क्या होने वाला है.” इसी तरह फिल्म सर्टिफिकेशन सेंसर बोर्ड अध्यक्ष पद पर पहलाज निहलाणी की नियुक्ति भी विवादास्पद रही है. उन्होंने 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए “हर घर मोदी” गाना तैयार किया था.

यही नहीं, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नीतियों की वजह से कई विवाद उभरे हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुलपति दिनेश सिंह से टकराव तो जग जाहिर है. दिसंबर, 2014 में आइआइटी-दिल्ली के डायरेक्टर रघुनाथ के. शेवगांवकर ने इस्तीफा दे दिया था. इसके पहले अनिल काकोदकर मुंबई आइआइटी के निदेशक मंडल के अध्यक्ष पद से नियुक्तियों को लेकर इस्तीफा दे चुके हैं. फिर नवगठित इतिहास परिषद भी कई तरह के विवादों को जन्म दे चुकी है.

इस तरह एनडीए सरकार के आने के बाद से ही बुद्धिजीवी समाज उद्वेलित रहा रहा है. साहित्य अकादेमी और लेखकों के बीच के इस संघर्ष में सरकार के मंत्रियों के कूदने से अतिवादियों के हौसले बढ़ सकते हैं, जिससे इस संघर्ष के और भड़कने का अंदेशा है. ऐसे में फैज की यह पंक्ति साकार होती लगी रही हैरूहां तल्खी-ए अय्याम अभी और बढ़ेगी/हां अहल-ए सितम मश्क-ए सितम करते रहेंगे.