हिंदी के प्रखर कवि एवं चिंतक मनमोहन ने भी हरियाणा साहित्य अकादेमी के `महाकवि सूरदास सम्मान` को लौटाने की घोषणा की है।
सम्मान के साथ मिली एक लाख रुपये की धनराशि पत्र के साथ चैक (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, चैक नंबर.593512, दिनांक 16-10-2015) व शॉल, प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिह्न भी स्पीड पोस्ट के ही जरिये भेज दिये गए हैं।`
मनमोहन ने मौजूदा हालात और रचनाकारों के प्रतिवाद को लेकर यह वक्तव्य भी जारी किया है।)
देश के हालात अच्छे नहीं हैं। जिन्हें अभी नहीं लगता, शायद कुछ दिन बाद सोचें। जिन लोगों ने नागरिक समाज का ख़याल छोड़ा नहीं है और जिनके लिए मानवीय गरिमा और न्याय के प्रश्न बिल्कुल व्यर्थ नहीं हो गए हैं, उन्हें यह समझने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी कि परिस्थिति असामान्य रूप से चिन्ताजनक है।
हममें से अनेक हैं जिन्होंने 1975-76 का आपातकाल देखा और झेला है।
साम्प्रदायिक हिंसा और दलित आबादियों पर जघन्य हमलों की कितनी ही वारदातें पिछले 50 वर्षों में हुई हैं। 1984, 1989-1992 और 2002 के हत्याकांड, फ़ासीवादी पूर्वाभ्यास और नृशंसताएं हमारे सामने से गुजरी हैं।
ये सरकार और वो सरकार, सब कुछ हमारे अनुभव में है। फिर भी लगता है कुछ नई चीज़ है जो घटित हो रही है। पहली बार शायद इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि जैसे राज्य, समाज और विचारधारा के समूचे तंत्र के फ़ासिस्ट पुनर्गठन की किसी दूरगामी और विस्तृत परियोजना पर काम शुरू हुआ है। कोई भोला-भाला नादान ही होगा जो आज के दिन इस बात पर यक़ीन कर लेगा कि नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे, एम.एम. कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की हत्याएं या रक्तपिपासु उन्मत्त भीड़ बनाकर की गई दादरी के अख़लाक़ की हत्या में कोई अन्दरुनी रिश्ता नहीं है या ये कानून और व्यवस्था की कोई स्थानीय या स्वतःस्फूर्त घटनाएं हैं।
लगता है, ये सब सिलसिला एक उदीयमान फ़ासिस्ट संरचना का अनिवार्य हिस्सा है। इसी के तहत साहित्य, कला-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा और शोध की श्रेष्ठ परंपराओं और तमाम छोटे-बड़े संस्थागत ढांचों को छिन्न-भिन्न और विकृत किया जा रहा है और पेशेवराना साख और उत्कृष्टता के मानदंडों को हिक़ारत से परे धकेलकर इन्हें ज़ाहिल और निरंकुश कूपमंडूकों के हवाले किया जा रहा है। और इसी के तहत सार्वजनिक विमर्शों में और लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में साम्प्रदायिक नफ़रत और विद्वेष का जहर घोला जा रहा है, स्त्रियों और दलितों को `सुधारने` के कार्यक्रम चल रहे हैं, इसी के तहत देशभर में अपराधी फ़ासिस्ट गिरोह `धर्म`, `संस्कृति` और `राष्ट्र` के `कस्टोडियन` बनकर घूम रहे हैं। गांवों और कस्बों में अल्पसंख्यकों, स्त्रियों, दलितों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर संगठित हमले कर रहे हैं, सोशल मीडिया पर उन्हें धमका रहे हैं और अपमानित कर रहे हैं।
लगता है, लोगों का खानपान, पहनावा, पढ़ना-लिखना, आना-जाना, सोच-विचार, भाषा, धार्मिक विश्वास, तीज-त्यौहार, यहां तक कि मानवीय सम्बन्ध, जीवन व्यवहार और रचनात्मक अभिव्यक्ति- सब कुछ यही तय करेंगे।
यह बहुत साफ है कि ये लंपट तत्व सत्तातंत्र की गोद में खेल रहे हैं। उन्हें नियंत्रित किया जाए, इसके बजाय लगातार संरक्षण मिल रहा है और उनकी हौसला अफजाई की जा रही है।
फ़ासीवाद मानवद्रोह की मुक़म्मल विचारधारा है। हम जानते हैं कि नवजागरणकालीन उदार, मानववादी, विवेकवादी, जनतांत्रिक और आधुनिक मूल्य परम्पराओं के साथ उनकी बद्धमूल शत्रुता है और इन्हें वह गहरी हिक़ारत और नफ़रत से देखती है। अग्रणी बुद्धिजीवियों, लेखकों, फिल्मकारों, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों और समाजविज्ञानियों को निशाना बनाए बिना उसका काम पूरा नहीं होता।
अब यह स्पष्ट है कि बौद्धिक रचनात्मक बिरादरी की नियति उत्पीड़ित आबादियों, स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों इन सभी के साथ एक ही सूत्र में बंधी है। लड़ाई लंबी और कठिन है।
पुरुस्कार लौटाना प्रतीकात्मक कार्रवाई सही, पर इससे प्रतिरोध की ताकतों का मनोबल बढ़ा है।
यह दुखद और शर्मनाक है कि जाने-माने रचनाकारों और बुद्धिजीवियों के इस देशव्यापी प्रतिवाद के गंभीर अर्थ को समझने के बजाय सत्ताधारी लोग इसका मज़ाक उड़ाने की और इसे टुच्ची दलीय राजनीति में घसीट कर इसकी गरिमा को कम करने की व्यर्थ कोशिशें कर रहे हैं।
अब जरूरत है कि हम और करीब आएं, मौजूदा चुनौतियों को मिलकर समझें और ज्यादा सारभूत बड़े वैचारिक हस्तक्षेप की तैयारी करें। अगर हमने यह न किया तो इसकी भारी क़ीमत इस मुल्क को अदा करनी होगी।