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राजनैतिक भ्र्ष्टाचार में केजरीवाल ने कांग्रेस और भाजपा को पीछे छोड़ा

arvind_kejriwal_624x351_bbcनई दिल्ली, ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट वाला विवाद एक बार फिर साबित करता है कि भ्रष्टाचार का खात्मा करने आई पार्टी राजनैतिक भ्र्ष्टाचार में दूसरी पार्टियों से भी आगे निकल चुकी है। चोरी सब करते हैं, लेकिन बाकी चोरी पकड़े जाने पर बगलें झांकते हैं, बहाने बनाते हैं। यह पार्टी पकड़े जाने पर पलट कर दूसरों को आँखे दिखाती है, चोरी को पूजा बताती है, एक बार फिर अपने आप को मोदी का शिकार दिखाती है।
मामला सीधा-सादा है। सत्ताधारी पार्टियां मंत्रीपद की रेवड़िया बाँट कर भ्रष्टाचार न कर सकें, इसलिए संविधान में संशोधन किया गया था और मंत्रिमंडल की अधिकतम संख्या बाँध दी गयी थी। दिल्ली में अधिकतम सात मंत्री और एक संसदीय सचिव बन सकता था। लेकिन अभूतपूर्व चुनावी विजय के बाद असाधारण पार्टी के अनूठे मुख्यमंत्री ने अभूतपूर्व काम किया — एक नहीं, दो नहीं सीधे 21 संसदीय सचिव नियुक्त दिए। क्यों किये, आप खुद ही सोचिये।अगर MLA को अलग-अलग विभाग की निगरानी का काम ही सौंपना था तो अनेक सीधे रास्ते थे — विधान सभा समितियों के सदस्य और अध्यक्ष इसी काम के लिए होते हैं। अगर आप याद करें की मार्च 2015 पार्टी में क्या हो रहा था तो आप समझ जायेंगे कि आनन-फानन में यह रेवड़ियां क्यों बटीं।
खैर, यह नियुक्ति अनैतिक तो थी ही, गैर कानूनी भी थी। चुनाव आयोग से नोटिस आ गया, चूंकि इस उल्लंघन की जांच स्पीकर या उपराज्यपाल नहीं करता। इस उल्लंघन का फैसला चुनाव आयोग करता है। सजा के बतौर उन MLA की सीट खाली हो सकती है। चुनाव आयोग के कारण बताओ नोटिस का कोई जवाब नहीं बन रहा था। 21 सीटें जाने का खतरा है। फैसला चुनाव आयोग करेगा तो रोने की गुंजाईश भी नहीं होगी। जंग या मोदी को दोष भी नहीं दिया जा सकता।
इसलिए दिल्ली विधान सभा से एक उल्टा कानून बनने की चाल खेली गयी। बैक डेट से 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति को वैध बनाने का कानून विधान सभा में पास करवाया गया। नेता लोग कानून बनाकर अपनी पुरानी चोरी पर पर्दा डालते हैं, यही तो राजनैतिक भ्रष्टाचार है। बीजेपी इससे परहेज़ नहीं है। अगर राजस्थान सरकार ये चोरी करना चाहती तो मोदी सरकार खुशी-खुशी ठप्पा लगा देती। लेकिन जो मोदी सरकार दिल्ली सरकार के सही काम में अड़ंगा लगती है, वो भला उसकी चोरी में पार्टनर क्यों बनेगी। इसलिए राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर नहीं किये।
बस अब रोने के लिए वो बहाना मिल गया जिस की तलाश थी। अब चुनाव आयोग से हटाकर ध्यान मोदी सरकार पर भटकाया जा सकता है। अनैतिक नियुक्तियों सवाल को अब राष्ट्रपति के स्वीकृति के सवाल पर उलझाया जा सकता है। एक बार फिर मीडिया और जनता को बरगलाया जा सकता है।
अब देखते जाइये। फुल नौटंकी शुरू!

स्वराज अभियान के संयोजक योगेन्द्र यादव की फेसबुक वाल से साभार

दलों द्वारा सरकार बनाने पर मंत्रियों की बड़ी फौज की प्रवृत्ति पर नियंत्रण के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वेंकटचलैया की रिपोर्ट के आधार पर 2003 में बने कानून के अनुसार केंद्र तथा राज्यों में सदन की संख्या के 15 फीसदी से अधिक सदस्य मंत्री नहीं बन सकते। परंतु दिल्ली के लिए विशेष प्रावधानों के तहत 10 फीसदी यानी मुख्यमंत्री के अलावा 6 लोग ही मंत्री बन सकते हैं। केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीतकर 14 फरवरी, 2015 को 6 मंत्रियों के साथ सरकार बनाई थी। सत्ता में आते ही नैतिकता और आदर्शवाद फुस्स हो गया। एक महीने के भीतर ही केजरीवाल को 21 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त करके मंत्री का दर्जा देना पड़ा। बकाया विधायकों के वेतन भत्तों में 4 गुना की बढ़ोतरी करके उन्हे शांत  किया गया।

दिल्ली के किसी भी विधान में संसदीय सचिव का उल्लेख ही नहीं है; इसीलिए विधानसभा के प्रावधानों में इनके वेतन भत्ते सुविधाओं आदि के लिए कोई कानून नहीं है। इन 21 संसदीय सचिवों को स्टॉफ कार, सरकारी ऑफिस, फोन, एसी, इंटरनेट तथा अन्य सुविधाएं दी गई हैं, जिसके बावजूद आप नेताओं का स्पष्टीकरण है कि संसदीय सचिवों को कोई भी प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ नहीं दिया जा रहा है। लोकसभा तथा कई राज्यों में विधान मंडलों की नियमावली में ही मंत्री शब्द की परिभाषा में संसदीय सचिव का भी उल्लेख किया गया है, जिससे उन राज्यों में उनकी नियुक्ति वैध है।

आप की सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाली भाजपा के ही तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा ने दिल्ली में संसदीय सचिव के एक पद की शुरुआत की, जिसे कांग्रेस की शीला दीक्षित ने बढ़ाकर तीन कर दिया। कांग्रेस और भाजपा ने राजनीतिक भ्रष्टाचार पर सहमति के तौर पर संसदीय सचिवों की वैधता पर पहले कभी सवाल नहीं उठाए। इसी आपसी सामंजस्य का आरोप केजरीवाल लगाते रहे हैं। परंतु सात गुना ज्यादा, 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति करके केजरीवाल खुद भी तो राजनीतिक लूट के महानायक बन कर उभरे हैं, जिन्होंने अपने आत्मप्रचार के विज्ञापन हेतु बजट को 16 गुना बढ़ाकर 33 से 526 करोड़ कर दिया।

गैर-कानूनी लाभ के बावजूद विधायकों को अयोग्य ठहराना ही काफी नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 104 के तहत उन पर जुर्माना और आपराधिक कार्रवाई हो सकती है। संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद के दायरे से बाहर रखने के लिए दिल्ली विधानसभा में पारित कानून को राष्ट्रपति के अस्वीकार के बाद 21 विधायकों की सदस्यता रद्‌द होने के बावजूद केजरीवाल सरकार का राजनीतिक बहुमत तो बरकरार रहेगा पर नैतिक श्रेष्ठता के दावे का क्या होगा? केजरीवाल इस लड़ाई को उपचुनावों के माध्यम से जनता की अदालत में लड़ना पसंद करेंगे या फिर अदालतों में एक लंबी लड़ाई की शुरुआत होगी यह देखना दिलचस्प होगा?

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