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अंग्रेजों का केवल एक युद्ध, जिसका जश्न आज भी मनाया जाता है : भीमा कोरेगांव

लखनऊ, अंग्रेजों द्वारा किए गए कई युद्धों में केवल एक युद्ध, जिसका जश्न आज भी मनाया जाता है। क्योंकि इस युद्ध का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार से ज्यादा महारों की वीरता और उनकी शहादत से जुड़ा है। 
पुणे से महज 19 किलोमीटर दूर भीमा नदी के किनारे कोरेगांव में होने वाले इस युद्ध का नाम है भीमा कोरेगांव युद्ध। 1 जनवरी, 1818 को अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए महार रेजीमेंट के सैनिकों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की भारी-भरकम फौज को परास्त किया था। आज भीमा कोरेगांव सदियों तक होने वाले दलितों के दमन के प्रतिशोध का प्रतीक बन गया है।
  भीमा कोरेगांव का विजय स्मारक आज दलित स्वाभिमान और शौर्य का प्रतीक है। युद्ध में शहीद हुए महारों सहित अनेक योद्धाओं के नाम इस शिला स्तंभ पर दर्ज हैं। यह स्मारक पुणे-अहमदनगर रोड पर पेरना गांव के पास है। प्रतिवर्ष 1 जनवरी को पूरे देश से दलित यहां पहुंचकर पेशवा के ख़िलाफ़ महारों की वीरता और शौर्य का जश्न मनाते हैं।
कोरेगांव भीमा युद्ध की 203वीं बरसी पर पुणे के निकट ‘जय स्तंभ’ पर श्रद्धांजलि  समारोह इस बार भी हो रहा है। लेकिन सरकार ने  कोरोना वायरस महामारी के मद्देनजर लोगों से अपील की है कि वे स्मारक पर न आएं और घर में रहकर श्रद्धांजलि दें।  जिला प्रशासन ने सीआरपीसी की धारा 144 लगा दी है, जिसके तहत पेरना और अन्य गांवों में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध है।’जय स्तंभ’ पर हर साल लाखों लोग इस युद्ध की बरसी पर श्रद्धांजलि देने के लिए जुटते हैं।

जो इतिहासकार महारों और पेशवा फ़ौजों के बीच हुए इस युद्ध को विदेशी आक्रांता अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीय शासकों के युद्ध के तौर पर देखते हैं, तथ्यात्मक रूप से वो ग़लत नहीं हैं। लेकिन विद्वानों के अनुसार, महारों के लिए ये अँग्रेज़ों की नहीं बल्कि अपनी अस्मिता की लड़ाई थी। अंत्यजों यानी वर्णव्यवस्था से बाहर माने गए ‘अस्पृश्यों’ के साथ जो व्यवहार प्राचीन भारत में होता था, वही व्यवहार पेशवा शासकों ने महारों के साथ किया।

औरंगजेब की मृत्यु (1707)  के बाद मुगल साम्राज्य कमजोर हो गया। देसी राज्यों पर उसकी पकड़ ढीली होती गई। महाराष्ट्र में मराठे धीरे-धीरे मुगलिया सल्तनत से आजाद हो गए। 1713 में शाहूजी मराठा राज्य के छत्रपति बने। उन्होंने एक चितपावन ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ को मराठा राज्य का पाँचवां पेशवा घोषित किया। इसके बाद पेशवाओं ने मराठा राज्य पर वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर लिया। यानी मराठा राज्य की शक्ति ब्राह्मण पेशवाओं के हाथ में नियंत्रित हो गई। 

कहा जाता है कि ब्राह्मण पेशवाओं ने अपने राज्य में वर्ण व्यवस्था और मनु संहिता को कड़ाई से लागू किया। परिणामस्वरूप अछूतों को थूकने के लिए गले में मटकी और पैरों के निशानों की सफाई के लिए कमर के पीछे झाड़ू बांधना अनिवार्य था। इधर भारत में विदेशी शक्तियां भी सक्रिय थीं। पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसियों के बाद आए अंग्रेजों को भारत में पहले व्यापार और इसके बाद साम्राज्य विस्तार का मौका मिला। अंग्रेजों ने भारत में राजाओं की आपसी फूट ही नहीं बल्कि सामाजिक विषमताओं का भी भरपूर फायदा उठाया। 

फ्रांसिस स्टोन्टा के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने मराठा राज्य पर हमला किया। 1 जनवरी, 1818 को भीमा नदी के तट पर पेशवा और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ। अंग्रेजों के अग्रिम मोर्चे पर बांबे नेटिव इन्फेन्ट्री तैनात थी। इसमें करीब 800 सैनिक थे, जिसमें  500 महार सैनिक थे। महार सैनिकों की इस छोटी टुकड़ी ने 28000 सैनिकों वाली शक्तिशाली पेशवा सेना को केवल 12 घंटे में परास्त कर दिया। अंग्रेजों ने इस स्थान पर एक विजय स्मारक बनाया। इसमें शहीद हुए सैनिकों के नाम दर्ज हैं।

 1927 में बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने भीमा कोरेगांव जाकर शहीद महारों को श्रद्धांजलि दी। इसके बाद वे निरंतर विजय स्मारक पर जाते रहे। डॉ.आंबेडकर ने ही भीमा कोरेगांव में दलितों की वीरता और शौर्य के जलसे की शुरुआत की थी। उन्होंने भीमा कोरेगाँव युद्ध जीतने वाले महार सैनिकों की वीरता के प्रति दलितों को प्रेरित किया। उन्होंने इस लड़ाई को जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध महारों की जीत के रूप में पेश किया।

भीमा कोरेगांव में महारों के शौर्य के 200वें जलसे के दौरान हुई हिंसा के बहाने आज हिंदुत्ववादी ताकतें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का दमन करने पर उतारू हैं। पूरी दुनिया के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर जेल में होने वाली क्रूरता की निंदा की है। लेकिन दमन का सिलसिला थम नहीं रहा है।