लखनऊ, योगी सरकार के राज्यमंत्री और अनुसूचित जाति जनजाति वित्त विकास निगम के अध्यक्ष डॉ. लालजी निर्मल ने दलितों पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण की बदतर स्थिति पर बड़ा सवाल खड़ा किया है। उन्होने कहा कि मै मुख्यमंत्री होता तो आरक्षण कोर्ट की चौखट पर दम न तोड़ पाता।डॉ. निर्मल को बोधिसत्व डॉ. आम्बेडकर अधिवक्ता संघ की ओर से राज्यमंत्री बनाए जाने पर शाल और पुस्तक देकर सम्मानित किया गया।
लालजी निर्मल ने कहा कि वह मुख्यमंत्री होते, तो सबसे पहले जमीन विहीन दलितों का आंकड़ा तैयार करवाते। उनके प्रमोशन में आरक्षण को कोर्ट की चौखट पर दम नहीं तोड़ने देते। उन्होने कहा कि वह उसकी लड़ाई सरकार में ही इस तरह से लड़ते कि दलित और दलितों की दौलत दोनों बरकरार रहती, लेकिन हमारे हुक्मरानों ने हमारे वोट और अस्तित्व को संकट में डाल दिया।
दलित चिंतक ने कहा कि हम बंट गए और बांट दिए गए। ऐसे लोगों को इतिहास और भविष्य की पीढ़ियां कभी माफ नहीं करेंगी। जो दर्द दलितों ने पिछले 15 सालों में झेला है उसका हिसाब कौन देगा। उन्होने आगाह करते हुये कहा कि दलित उत्पीड़न नहीं रुक रहा है क्योंकि आप जातियों में बंटे हुए हैं। दलितों की बदहाली कैसे दूर होगी इसके बारे में सोचना होगा।
सेंट्रल बार एसोसिएशन के सभागार में राज्यमंत्री डॉ. लालजी प्रसाद निर्मल ने कार्यक्रम को संबोधित करते हुये सवाल किया कि जातियों में बंटा दलित, बुद्ध-आम्बेडकर का अनुयाई हो सकता है क्या? उनहोने कहा कि यह सवाल हर किसी को अपने आप से पूछना चाहिए। डॉ. लालजी निर्मल ने कहा कि बुद्ध ने सामाजिक क्रांति की सबसे पहली नींव डाली थी। बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर का लम्बा अनुभव था इसलिये उन्होंने काफी सोच विचार के बाद बौद्ध धर्म अपनाया था, लेकिन छह दशक बीत गए, हम आम्बेडकर को लेकर एक कदम भी आगे चल पाए क्या। डॉ. निर्मल ने कहा कि इसका मूल्यांकन जरूर होना चाहिए। केवल रटी रटाई बातों को लेकर चलने का समय अब नहीं है। हर कार्य का मूल्यांकन और उसकी गलतियों का सुधार होना चाहिए।
निर्मल ने कहा कि पहली बार कोई दलित सचिवालय संघ का अध्यक्ष बना था, लेकिन हम इस भावना को बरकरार नहीं रख पाए। हम टूट गए। एक दूसरे से अलग हो गए। केवल बुद्ध की जयंती मनाने या आम्बेडकर की जयंती मनाने से कुछ नहीं होने वाला है। हमें उनके बताए रास्तों पर चलना होगा। यही एक तरीका है आर्थिक और सामाजिक मजबूती का, जिसे हम अपनाने में भूल कर रहे हैं।
हालात इतने खराब हो गए हैं कि राष्ट्रपति को कहना पड़ा कि सुप्रीम कोर्ट में दलित जजों की संख्या बहुत कम है। इस सवाल को हम आगे नहीं बढ़ा पाए। इसमें कसूर किसका है। क्या इस मुद्दे पर बहस और चर्चा करने के लिए राष्ट्रपति को ही आगे आना पड़ेगा। समाज क्या करेगा। क्या कर रहे हैं, हमारे दलितों को वोटों के सौदागर। वह क्यों नहीं इस मुद्दे पर अपनी बात रखते। बात होगी तो दलितों के रक्षा के लिए होगी। उनके विकास और स्वाभिमान की होगी। हम किसी भी कीमत पर दलितों के साथ खिलवाड़ नहीं होने देंगे।