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प्रोफेसर भर्ती मामले में आरक्षण के मुद्दे पर जवाब दाखिल न होने पर, हाईकोर्ट सख्त

लखनऊ,  इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ ने लखनऊ विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के 180 पदों की चयन प्रक्रिया को अंतिम रूप देने पर रोक के मामले मेंं राज्य सरकार का जवाबी हलफ़नामा न दाखिल होने पर सख्त रुख अपनाया है।
न्यायालय ने सरकारी वकील के आग्रह पर तीन हफ्ते में जवाब पेश करने का अन्तिम अवसर देकर अगली सुनवाई 12 अप्रैल को नियत की है।
अदालत ने सख्त ताकीद की है कि अगर इस समय में जवाबी हलफ़नामा न पेश हुआ तो अगली सुनवाई पर सम्बंधित विभाग के प्रमुख सचिव दस्तावेजों के साथ कोर्ट में पेश होंगें। कोर्ट ने मामले में गत 11 फरवरी को दिए गए अंतरिम आदेश को अगली सुनवाई की तारीख तक बढा दिया है।
न्यायालय ने लखनऊ विश्वविद्यालय के इन पदों की चयन प्रक्रिया को अन्तिम रूप देने पर अंतरिम रोक लगा दी थी। अदालत ने विश्वविद्यालय प्रशासन को चयन प्रक्रिया को जारी रखने की छूट देते हुए निर्देश दिया था कि वह एंथ्रोपोलाजी विभाग में याची के लिए एक पद खाली रखेगा।
यह आदेश न्यायामूर्ति इरशाद अली ने बुधवार को डा. प्रीति सिंह की याचिका पर दिया। याची ने विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के 180 पदों पर भर्ती सम्बंधी 16 सितंबर 2020 के विज्ञापन में एंथ्रोपोलॉजी विभाग के चार पदों पर नियुक्ति को चुनौती दी है। याची का कहना था कि विज्ञापन के क्रम में शुरू की गई चयन प्रक्रिया में विश्वविद्यालय को एक इकाई मानकर आरक्षण लागू किया गया है जबकि उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दे रखी है कि विषय को इकाई माना जायेगा। विश्वविद्यालय द्वारा विज्ञापन में आरक्षण संबधी जो मानक लिए गए हैं, वह जो विधि सम्मत नहीं है। एंथ्रोपोलॉजी विभाग के लिए विज्ञापित सहायक प्रोफेसर के चारो पदों पर आरक्षण लागू कर दिया गया है जबकि याची सामान्य जाति की है और उक्त पद पर चयनित होने के लिए अर्ह होने के बावजूद आवेदन करने से वंचित रह गई ।
उधर, याचिका का विरोध करते हुए विश्वविद्यालय के वकील का कहना था कि 7 मार्च 2019 को केंद्र सरकार द्वारा 10 फीसदी अतिरिक्त आरक्षण का प्रावधान लागू किया गया। लिहाजा 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा पार हो गई। कहा गया था कि यूपी लोक सेवा (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण) अधिनियम, 1994 इस मामले में लागू नहीं होता। इसलिए विषय वार आरक्षण नीति नहीं अपनाई गई, बल्कि विश्वविद्यालय को एक इकाई के तौर पर मानते हुए आरक्षण लागू किया गया।
न्यायालय ने पक्षों की दलीलें सुनने के पश्चात अंतरिम आदेश पारित करते हुए कहा था कि यह बिंदु विचारणीय है कि क्या राज्य सरकार एक शासनादेश लाकर केंद्र सरकार द्वारा पारित एक अधिनियम के प्रावधान यूपी लोक सेवा (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण) अधिनियम, 1994 के प्रावधानों को खत्म कर सकती है? अदालत ने राज्य सरकार व विश्वविद्यालय को इस मामले में अपना जवाब दाखिल करने का समय देते हुए अगली सुनवाई 10 मार्च को नियत की थी।