राजनीति के अपराधीकरण की तरह, अब राजनीति का फिल्मीकरण या खेलकरण ?
March 31, 2019
नयी दिल्ली, बालीवुड अभिनेता सुनील दत्त, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, शत्रुधन सिन्हा, रेखा, जयाबच्चन, जयाप्रदा से शुरू हुआ फिल्मों से राजनीति का सफर संजय दत्त, रजनीकांत, कमल हासन के बाद भोजपुरी अभिनेता मनोज तिवारी, रविकिशन और अब दिनेशलाल यादव निरहुआ तक आ पहुंचा है। वहीं कीर्ति आजाद, अजरूद्दीन, चेतन चौहान आदिसे खेल की दुनिया से राजनीति मे आने का सिलसिला क्रिकेटर गौतम गंभीर तक जारी है।
हर राजनीतिक दल जनता के लिये काम करने के बजाय चुनाव जीतने के लिये तरह तरह के हथकंडे अपनाता है। राजनीतिक दल चुनावी दंगल में फायदेमंद साबित होने वाले हर व्यक्ति का इस्तेमाल करते हैं। दुखद बात यह है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों को जरूरी नहीं समझते जो जनहित के लिये वास्तव में काम करते हैं। जनता के मुद्दों से ध्यान भटकाने में सेलिब्रिटीज का इस्तेमाल सबसे कारगर तरीका साबित हुआ है। ऐसे लोग फिल्म या खेल जगत सहित किसी भी क्षेत्र के हो सकते हैं।
भीड़ जुटाने और जनता को लुभाने के लिये फिल्म और खेल जगत के लोगों का इस्तेमाल होता है। ये हस्तियां वोट जुटाने में सक्षम होती हैं और चुनाव मैदान में भी इनका इस्तेमाल होता है। राजनीतिक दल चुनाव में कामयाबी के लिए फिल्म और खेल जगत की मशहूर हस्तियों (सेलिब्रटीज) को खूब आजमाते हैं। फिल्मी कलाकारों और खिलाड़ियों का आजादी के बाद से ही चुनाव में उपयोग शुरु हो गया था। पहले ये लोग सिर्फ चुनाव प्रचार में हिस्सा लेते थे। फिर चुनाव में सक्रिय भागीदारी का सिलसिला दक्षिण भारत से बढ़ा और 1980 के दशक में यह उत्तर भारत तक पहुंच गया।
पिछले कुछ दशकों में यह चलन बढ़ रहा है। इसकी वजह साफ है । राजनीतिक दलों को लगने लगा कि अगर इनका आभामंडल दूसरों के लिये वोट जुटा सकता है तो अपने लिये ही वोट क्यों न जुटाये जायें। ठीक उसी तरह जैसे अपराधियों के, राजनीति में इस्तेमाल के दौरान खुद किस्मत आजमाने का सिलसिला शुरु हुआ।
भीड़ जुटाने का जरिया बनना या जनसेवा का माध्यम बनना राजनीति में आने वाले व्यक्ति की मंशा पर निर्भर करता है। यह बेहद अफसोस की बात है कि ज्यादातर राजनीतिक दल या मशहूर हस्ती जनसेवा के मकसद से राजनीति का रुख नहीं करती। दोनों का मकसद अधिकतर लाभ के लिये एक दूसरे का इस्तेमाल करना होता है।
यह सही है कि दक्षिणी राज्यों में एम जी रामचंद्रन और एन टी रामाराव से लेकर जयललिता तक तमाम शीर्ष नेता फिल्म जगत से ही राजनीति के शिखर पर पहुंचे। लेकिन उत्तर भारत में राजनीति के शिखर तक पहुंचने के लिये किसी अभिनेता ने दक्षिण भारतीय कलाकारों की तरह कोशिश भी नहीं की। अमिताभ बच्चन या अन्य लोगों ने कोशिश की भी, लेकिन उन्हें उस तरह से कामयाबी नहीं मिली। हांलाकि, राजबब्बर अभी भी लगातार सक्रिय राजनीति मे आगे बढ़ रहें हैं।
देखा ये गया है कि करियर के ढलान पर सिने स्टार और खिलाड़ी राजनीति का रुख करतें हैं। वे सियासत को अपने करियर की दूसरी पारी का जरिया बनाते हैं या एक नये रोजगार की तलाश करने के लिये अग्रसर होतें हैं। हकीकत ये है कि खेल या एक्टिंग के क्षेत्र में काम नहीं मिलने के बाद आसान रास्ते की तलाश में ये लोग राजनीति का रुख करते हैं।
यह सही है कि लोकतंत्र में किसी को भी चुनावी राजनीति में आने का अधिकार है। इसलिये किसी को राजनीति में आने से ना तो रोका जा सकता है ना ही रोका जाना चाहिये। ऐसे में मतदाताओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे यह सोचें कि जिसे अपना प्रतिनिधि बना रहे हैं, वह उनके लिये कितना हितकारी साबित हो सकता है। मतदाताओं की जिम्मेदारी है कि वह उम्मीदवार के ग्लैमर से प्रभावित न होकर ये देखे कि वास्तव मे उसकी राजनीति मे आने का उद्देश्य क्या है और वह जन समस्याओं की कितनी जानकारी रखता है?
नयी दिल्ली, बालीवुड अभिनेता सुनील दत्त, अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, शत्रुधन सिन्हा, रेखा, जयाबच्चन, जयाप्रदा से शुरू हुआ फिल्मों से राजनीति का सफर संजय दत्त, रजनीकांत, कमल हासन के बाद भोजपुरी अभिनेता मनोज तिवारी, रविकिशन और अब दिनेशलाल यादव निरहुआ तक आ पहुंचा है। वहीं कीर्ति आजाद, अजरूद्दीन, चेतन चौहान आदिसे खेल की दुनिया से राजनीति मे आने का सिलसिला क्रिकेटर गौतम गंभीर तक जारी है।
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हर राजनीतिक दल जनता के लिये काम करने के बजाय चुनाव जीतने के लिये तरह तरह के हथकंडे अपनाता है। राजनीतिक दल चुनावी दंगल में फायदेमंद साबित होने वाले हर व्यक्ति का इस्तेमाल करते हैं। दुखद बात यह है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों को जरूरी नहीं समझते जो जनहित के लिये वास्तव में काम करते हैं। जनता के मुद्दों से ध्यान भटकाने में सेलिब्रिटीज का इस्तेमाल सबसे कारगर तरीका साबित हुआ है। ऐसे लोग फिल्म या खेल जगत सहित किसी भी क्षेत्र के हो सकते हैं।
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भीड़ जुटाने और जनता को लुभाने के लिये फिल्म और खेल जगत के लोगों का इस्तेमाल होता है। ये हस्तियां वोट जुटाने में सक्षम होती हैं और चुनाव मैदान में भी इनका इस्तेमाल होता है। राजनीतिक दल चुनाव में कामयाबी के लिए फिल्म और खेल जगत की मशहूर हस्तियों (सेलिब्रटीज) को खूब आजमाते हैं। फिल्मी कलाकारों और खिलाड़ियों का आजादी के बाद से ही चुनाव में उपयोग शुरु हो गया था। पहले ये लोग सिर्फ चुनाव प्रचार में हिस्सा लेते थे। फिर चुनाव में सक्रिय भागीदारी का सिलसिला दक्षिण भारत से बढ़ा और 1980 के दशक में यह उत्तर भारत तक पहुंच गया।
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पिछले कुछ दशकों में यह चलन बढ़ रहा है। इसकी वजह साफ है । राजनीतिक दलों को लगने लगा कि अगर इनका आभामंडल दूसरों के लिये वोट जुटा सकता है तो अपने लिये ही वोट क्यों न जुटाये जायें। ठीक उसी तरह जैसे अपराधियों के, राजनीति में इस्तेमाल के दौरान खुद किस्मत आजमाने का सिलसिला शुरु हुआ।
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यह सही है कि दक्षिणी राज्यों में एम जी रामचंद्रन और एन टी रामाराव से लेकर जयललिता तक तमाम शीर्ष नेता फिल्म जगत से ही राजनीति के शिखर पर पहुंचे। लेकिन उत्तर भारत में राजनीति के शिखर तक पहुंचने के लिये किसी अभिनेता ने दक्षिण भारतीय कलाकारों की तरह कोशिश भी नहीं की। अमिताभ बच्चन या अन्य लोगों ने कोशिश की भी, लेकिन उन्हें उस तरह से कामयाबी नहीं मिली। हांलाकि, राजबब्बर अभी भी लगातार सक्रिय राजनीति मे आगे बढ़ रहें हैं।
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यह सही है कि लोकतंत्र में किसी को भी चुनावी राजनीति में आने का अधिकार है। इसलिये किसी को राजनीति में आने से ना तो रोका जा सकता है ना ही रोका जाना चाहिये। ऐसे में मतदाताओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे यह सोचें कि जिसे अपना प्रतिनिधि बना रहे हैं, वह उनके लिये कितना हितकारी साबित हो सकता है। मतदाताओं की जिम्मेदारी है कि वह उम्मीदवार के ग्लैमर से प्रभावित न होकर ये देखे कि वास्तव मे उसकी राजनीति मे आने का उद्देश्य क्या है और वह जन समस्याओं की कितनी जानकारी रखता है?
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