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लीची के बाग मुर्गे की बांग से हो रहे गुलजार

नई दिल्ली, किसानों को सालों भर रोजगार उपलब्ध कराने और उनकी आय दोगुनी करने के उद्देश्य से लीची के बाग में समेकित कृषि प्रणाली के तहत पहली बार मुर्गापालन का प्रयोग शुरू किया गया है ।

बिहार के केंद्रीय लीची अनुसंधान संस्थान में इसी माह से यह अभिनव प्रयोग शुरू हुआ है जिससे साल में करीब एक माह रोजगार और आय उपलब्ध कराने के बाद निर्जन और ‘उदास’ रहने वाले लीची के ये बाग मुर्गों की बांग तथा इसकी देखभाल करने वालों की चहल पहल से गुलजार हो रहे हैं।

संस्थान के निदेशक डॉ. विशाल नाथ के अनुसार इस प्रयोग से लीची के निर्जन बाग सजीव हो उठे हैं और भविष्य की दृष्टि से आशा की नई किरण नजर आ रही है। डॉ. विशाल नाथ ने केंद्रीय पशुपालन मत्स्य और डेयरी मंत्री गिरिराज सिंह की सलाह पर लीची के बाग में यह अभिनव प्रयोग शुरू किया है जिसे लेकर स्थानीय लोगों में जबरदस्त दिलचस्पी है।

बिहार पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के कुलपति रामेश्वर सिंह की सलाह पर संस्थान के लीची के बाग में देसी नस्ल के निर्भीक, पराकर्मी, जोशीले और शक्तिशाली नस्ल के पक्षियों को लाया गया है। मुर्गियों की कठोर प्रजातियों में वनराजा, ग्राम प्रिया, कड़कनाथ, कैरी निर्भीक, असिल आदि शामिल हैं। ये मुर्गे-मुर्गियां देसी नस्ल में सुधार करके तैयार की गई हैं।

मुर्गियों की ये किस्में रोग प्रतिरोधक क्षमता से लैस होने के साथ ही प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवित रहने की क्षमता रखती हैं। इनमें बीमारियां कम होती हैं, प्रोटीन अधिक और वसा कम होती है, जिससे हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और कुछ दूसरी बीमारियों से पीड़ित लोग भी इसे अपने मांसाहार का हिस्सा बनाना चाहते हैं। इन पक्षियों में मृत्यु दर काफी कम है, जिससे नुकसान का खतरा भी कम जोखिम भरा है।

काला कड़कनाथ नख से शिख तक औषधीय गुणों से परिपूर्ण है। कई स्थानों पर कलिमासी के नाम से जाने जाने वाले इस पक्षी का मांस भी काला है। एक समय विलुप्तप्राय हो गयी यह नस्ल अब भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के प्रयास से देश के कोने कोने में बांग दे रही है। लोग इसके एक अंडे की कीमत पचास रुपये तक अदा कर देते हैं।