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सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में पक्षपात ?, वरिष्ठ अधिवक्ताओं और पत्रकारों ने उठाया सवाल?

नई दिल्ली, देश की हर अदालत एकदम सही चले, ये ज़रूरी नहीं, लेकिन मोटे तौर पर सुप्रीम कोर्ट में किसी भी तरह की गड़बड़ी की उम्मीद तो नही कही जा सकती है। क्योंकि ये देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है।

कहा जाता है कि  न्यायपालिका पर सवाल उठाना सही नहीं है। लेकिन जब देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था के न्याय में भेदभाव दिखे तो समाज का जागरूक वर्ग बोल उठेगा। 

सुप्रीम कोर्ट की दो जज की बेंच ने कई घंटों की सुनवाई के बाद रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़ अर्नब गोस्वामी समेत तीन लोगों को अंतरिम ज़मानत दे दी है।  सुप्रीम कोर्ट ने  मुंबई हाई कोर्ट के गोस्वामी की ज़मानत याचिका ठुकराने के फ़ैसले को ग़लत बताया है। 

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई इस याचिका की बुधवार को तत्काल सुनवाई ऐसे समय में हुई, जब कोर्ट दीपावली की छुट्टी के लिए बंद है। छुट्टी के दौरान ऐसी तत्काल सुनवाई पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने अदालत के सेक्रेटरी जनरल को चिट्ठी लिख ‘सेलेक्टिव लिस्टिंग’ यानी अदालत के सामने सुनवाई के लिए अन्य मामलों में से इसे प्राथमिकता देने का आरोप लगाया है।  दुष्यंत दवे ने कई ऐसे मामलों की चर्चा की, जिनमें लंबे समय से हिरासत में होने के बावजूद सुनवाई की तारीख़ नहीं मिली है या बहुत देर से दी गई है.

उन्होंने कहा, “ये अदालत की गरिमा का सवाल है, किसी भी नागरिक को ये नहीं लगना चाहिए कि वो दूसरे दर्जे का है, सभी को ज़मानत और जल्द सुनवाई का हक़ होना चाहिए, सिर्फ़ कुछ हाई प्रोफाइल मामलों और व़कीलों को नहीं।” दुष्यंत दवे ने कहा, “ज़मानत और सुनवाई का हक़ ऐसे सैंकड़ों लोगों को नहीं दिया जा रहा, जो सत्ता के क़रीब नहीं हैं, ग़रीब हैं, कम रसूख़वाले हैं या जो अलग-अलग आंदोलनों के ज़रिए लोगों की आवाज़ उठा रहे हैं, चाहे ये उनके लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल हो।”

उनके समर्थन में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने भी ट्वीट कर इसे प्रशासनिक ताक़त का ग़लत इस्तेमाल बताया.

उन्होंने लिखा, “जब ससीएए, 370, हेबियस कॉर्पस, इलेकटोरल बॉन्ड्स जैसे मामले कई महीनों तक नहीं सूचीबद्ध होते, तो अर्नब गोस्वामी की याचिका घंटों में कैसे सूचीबद्ध हो जाती है, क्या वो सुपर सिटिज़न हैं?”

अर्नब गोस्वामी को अंतरिम जमानत मिलने के बाद कॉमेडियन कुणाल कामरा ने पहला ट्वीट किया- जिस गति से सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को ऑपरेट करती है, उसको देखकर लगता है महात्मा गांधी के फोटो को हरीश साल्वे के फोटो से बदलने का वक्त आ गया है।

कुणाल दूसरे ट्वीट में लिखा- डीवाई चंद्रचूड़ एक फ्लाइट अटेंडेंट हैं, जो प्रथम श्रेणी के यात्रियों को शैम्पेन ऑफर कर रहे हैं क्योंकि वो फास्ट ट्रैक्ड हैं। जबकि सामान्य लोगों को यह भी नहीं पता कि वो कभी फ्लाइट चढ़ या बैठ भी सकेंगे, सर्व करने की तो बात ही नहीं है।

 वहीं, कॉमेडियन कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले से व्यथित होकर जजों के आगे से ‘आदरणीय’ हटाने की ही सिफारिश कर डाली। इतना ही नहीं, उन्होने जज डीवाई चंद्रचूड़ को फ्लाइट अटेंडेंट बताते हुए कहा कि वो प्रथम श्रेणी के यात्रियों के लिए शैंपेन परोसते हैं।

वहीं पत्रकार अभिसार शर्मा ने भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर कड़ी आपत्ति जताते हुये ऐसे ही अन्य मामलों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को सामने रखा।

अहमदाबाद में प्रलीन पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में भाषण देते हुए न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने कहा था-

“न्यायपालिका आलोचना से ऊपर नहीं है। यदि उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीश उनके द्वारा प्राप्त सभी अवमानना संचारों पर ध्यान देने लगें, तो अवमानना कार्यवाही के अलावा अदालतों में कोई काम नहीं हो सकेगा। वास्तव में, मैं न्यायपालिका की आलोचना का स्वागत करता हूं क्योंकि यदि आलोचना होगी, तभी सुधार होगा। न केवल आलोचना होनी चाहिए, बल्कि आत्ममंथन भी होना चाहिए। जब हम आत्ममंथन करेंगे, तो हम पाएंगे कि हमारे द्वारा लिए गए कई फैसलों को सुधारने की आवश्यकता है। कार्यपालिका, न्यायपालिका, नौकरशाही या सशस्त्र बलों की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता। यदि हम विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका या राज्य के अन्य निकायों की आलोचना को रोकने का प्रयास करते हैं, तो हम एक लोकतंत्र के बजाय एक पुलिस राज्य बन जाएंगे और हमारे देश के संस्थापकों ने इस देश से कभी यह उम्मीद नहीं की थी।”