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निजी फायदे तक ही सीमित होता जा रहा सियासी दलों का गठबंधन

लखनऊ, मौजूदा समय में बहुजन समाज के हितों की बात करने वाले क्षेत्रीय सियासी दल चुनाव नजदीक आते ही किसी ना किसी बड़े दल के साथ घोषित या अघोषित समझौता करते हैं और यदि उनका गठबंधन सत्ता में नहीं आता तो ये दल अपने निजी हित में चुनाव ख़त्म होते ही गठबंधन तोड़ लेते हैं और सत्ताधरी दल से गठबंधन के लिए अपने प्रयास तेज कर देते हैं। जबकि जरूरत इस बात की है ये दल बहुजन समाज के हितों को सुरक्षित रखने के लिए चुनाव बाद भी एक साथ रहकर संविधान विरोधी ताकतों के खिलाफ सड़क पर भी लड़ाई लड़ें। वैसे यूपी में अपना दल एस, निषाद पार्टी सुभासपा आदि बहुजन समाज के हितों की रक्षा करने की बात प्रपुखता से करते हैं। बहुजन समाज पार्टी का गठन तो बहुजन समाज के हितों की रक्षा के लिए ही किया गया था, लेकिन दुर्भाग्यवश बसपा प्रमुख मायावती जी ने अपने को इस आन्दोलन से दूर कर लिया है, जबकि अपना दल (एस) और निषाद पार्टी तो पहले से ही भाजपा के साथ है, विधानसभा चुनाव से पहले सुभासपा प्रमुख ओम प्रकाश राजभर ने सपा से गठबंधन करके चुनाव लड़ा, लेकिन विधान परिषद का चुनाव आते-आते राजभर ने सपा से किनारा करना शुरू कर दिया और राष्ट्रपति के चुनाव में उन्होंने भाजपा समर्थित एनडीए प्रत्याशी दौपद्री मुर्मू के समर्थन की घोषणा कर दी। कभी बहुजन आन्दोलन की अगुवाई करने वाली बसपा नेता ने भी राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी को समर्थन की बात कही है, हालांकि इसके पीछे उनका तर्क ये है कि भाजपा ने आदिवासी महिला को प्रत्याशी बनाया है, इसलिए वह भाजपा को समर्थन कर रहीं हैं, लेकिन राजभर और मायावती जी ने ये नहीं बताया कि उनकी इस सम्बन्ध में समर्थन के एवज में बहुजन समाज के हितों की पूर्ति को लेकर मुर्मू जी से क्या बात हुई, क्या मुर्मू जी चुनाव जीतने के बाद बहुजन समाज के लोगों को संविधान प्रदत्त अधिकार दिलाएंगी।

दरअसल सत्ता में अपनी जातियों को राजनीतिक और प्रशासनिक भागीदारी दिलाने के लिए इन दलों ने बड़े दलों से गठबंधन करके सियासी लाभ भी लिया, वैसे इन नेताओं ने मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ आन्दोलन चलाने के लिए ही राजनीतिक दलों का गठन किया, लेकिन वैचारिक और सैद्धातिक पृष्ठभूमि मजबूत ना होने के कारण ये दल बहुजन समाज के संवैधानिक अधिकारों की बात करना बंद कर देते हैं। बहुजन समाज के हित की बात करने वाले इन दलों के नेता पार्टी की कमान, मंत्री पद व अन्य संवैधानिक पद केवल और केवल अपने परिवार के लोगों में ही रखना चाहते हैं, यही वजह है कि ये दल विचारधारा के बजाय अपने निजी स्वार्थ को ध्यान में रखकर ही कोई निर्णय लेते हैं। बहुजन नायक कांशीराम जी ने गैर बराबरी के आधार सदियों से शोषण का शिकार बन रहे दबे-कुचले 85 फीसदी वाले समाज को एकजुट करके बहुजन समाज बनाया, कांशीराम जी ने जो बहुजन समाज बनाया उसमें दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों को शामिल किया और उन्हीं की कोशिश और मेहनत का नतीजा रहा कि देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में बसपा की चार बार सरकार बनी। बसपा प्रमुख मायावती की नाराजगी के चलते पार्टी छोड़ने या पार्टी से निकाले जाने के बाद स्व. सोनेलाल पटेल कुर्मी समाज की पार्टी अपना दल का गठन किया, इसी तरह से बसपा से अलग हुए ओम प्रकाश राजभर ने सुभासपा बनायीं, कांशीराम जी ने 6743 जातियों में बंटे दलितों और पिछड़ा वर्ग के साथ अल्पसंख्यकों को एकजुट किया और मनुवादी ताकतों को शिकस्त देकर यूपी में तीन बार भाजपा के साथ मिलकर बसपा की सरकार जरूर बनायीं, किन्तु इस दौरान भी उन्होंने बहुजन समाज के हित को सर्वोपरि रखा, जरूरत पड़ने पर सरकार गिरा दी, लेकिन बहुजन समाज के हितों को कभी भी दरकिनार नहीं किया, लेकिन बहुजन समाज के हितों की रक्षा करने का दावा करने वाले दल सुभासपा समेत लगभग सभी दलों ने केवल खुद को अपने व अपने परिवार के हितों तक की सीमित कर रखा है, बसपा सुप्रीमो मायावती भी इस दिशा में कोई काम करती नहीं दिख रहीं हैं। यदि यही स्थिति रही तो मनुवादियों के खिलाफ कोई बड़ा और मजबूत आन्दोलन नहीं खड़ा हो पायेगा। कांशीराम जी के आन्दोलन से निकले दलों की जिम्मेदारी बनती है कि वे निजी हितों को किनारे रख कर इस बात पर विचार करें कि दलितों और पिछड़ा वर्ग के लोगों को उनके लिए निर्धारित आरक्षण के हिसाब से विभिन्न सरकारी विभागों में उनका कोटा पूरा है या नहीं, विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर और कुलपति के पदों पर इन वर्ग के लोगों की नियुक्ति क्यों नहीं की जा रही है, राजकीय सेवाओं के लगभग 11 लाख पद खाली पड़े हैं, इन्हें कैसे भरा जाए, प्राइमरी शिक्षकों में दलितों और पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित लगभग 18 हजार पदों पर सवर्णों को नियुक्त कर दिया गया, जरूरत इस बात की है कि दलितों और पिछड़ा वर्ग के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ा जाए, इसके लिए इन दलों को आगे बढ़कर आन्दोलन की अगुवाई करनी चाहिए। साथ ही बड़ा दल होने के नाते सपा प्रमुख अखिलेश यादव जी की जिम्मेदारी बनती है कि वह समान विचारधारा वाले दलों को अपने साथ रखें।

सामाजिक संस्था बहुजन भारत के अध्यक्ष और पूर्व आईएएस कुंवर फ़तेह बहदुर का मानना है कि बहुजन समाज को संविधान में प्रद्दत अधिकार दिलाने के लिए बहुजन समर्थक दल केवल चुनाव तक ही अपने गठबंधन को सीमित ना रखें, बल्कि चुनाव बाद भी अपना ये समझौता जारी रखें, चुनाव बाद भी बहुजन समाज के हितों की रक्षा के लिए गठबंधन जारी रखें, इससे बहुजन समाज के लोगों को संविधान में दिए गए अधिकार भी मिलने में आसानी होगी और साथ ही इनका उत्पीडन नहीं हो सकेगा। बहुजन समाज के लोगों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे इन दलों के कामकाज पर प्रभावी नजर रखें।

कमल जयंत (वरिष्ठ पत्रकार)।