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आज भी दलितों के साथ जुड़ी हैं ये पाबंदियां, क्या मानसिक रूप से बीमार है हमारा समाज?

लखनऊ, आज हम बड़े गर्व से कहतें हैं कि आजादी के बाद हमने बहुत तरक्की की है, बैलगाड़ी युग से आज हम डिजिटल युग मे पहुंच गयें हैं। लेकिन कभी-कभी यह लगता है कि हमारी यह तरक्की अभी अधूरी है। हमने भौतिक और आर्थिक तरक्की तो प्राप्त कर ली, लेकिन  मानसिक रूप से बीमार अपने समाज का इलाज नही किया ? जो सबसे पहले किया जाना जरूरी था।

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यूपी के कासगंज जिले मे एक युवा कई दिनों से सिर्फ इस बात के लिये जूझ रहा है कि वह अन्य लोगों की भांति ही अपनी शादी मे बारात लेकर अपनी दुल्हन के घर तक जाये। समस्या यह है कि वह युवक दलित है। हाथरस निवासी संजय जाटव की बरात 20 अप्रैल को कासगंज के जिस गांव निजामपुर में जानी है वह ठाकुर बाहुल्य है। निजामपुर गांव में ठाकुरों की संख्या 250 से 300 के आसपास है। जबकि जाटव सिर्फ 40 से 50 लोग हैं। ठाकुर बाहुल्य इस गांव में दलितों द्वारा बारात निकालने का रिवाज ही नहीं है।

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संजय जाटव ने  इस मामले की शिकायत कासगंज के जिलाधिकारी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की। संजय  ने सीएम के जनसुनवाई पोर्टल पर अपनी शिकायत दर्ज कराई है। पुलिस ने जांच कर कहा कि बारात निकालने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। बारात निकालने से शांति व्यवस्था भंग हो सकती है और गांव में अप्रिय घटना भी हो सकती है। सूत्रों के अनुसार,  20 साल पहले एक जाटव परिवार की बारात को इसी वजह से वापस लौटना पड़ा था।

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डीएम कासगंज आरपी सिंह के अनुसार,  किसी को भी बरात निकालने के लिए कोई भी परमिशन की जरूरत नहीं है आवेदन करने वाले युवक संजय ने बारात को पूरे गाँव में घुमने को लेकर परमिशन मांगी है। इस मामले की जांच पुलिस से कराई गई है। उनकी रिपोर्ट के अनुसार परमिशन देने से इलाके में तनाव हो सकता है।

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 युवक संजय जाटव एलएलबी कर रहा है। उसका कहना है कि पुलिस ने हमें सुरक्षा देने की बजाय बारात को शांति के लिए खतरा बता दिया है।  ऐसा तब है जब संविधान ने हमें बराबरी का हक दिया है। जब ठाकुर बिरादरी के लोग पूरे गांव में बरात निकाल सकते हैं तो दलित बिरादरी के लोग क्यों नहीं पूरे गांव में बरात निकाल सकते हैं। आज के दौर में ऐसी परंपराओं के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।  हम पुलिस से सिर्फ सुरक्षा चाहते हैं।

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बात बिल्कुल स्पष्ट है इन  20 सालों मे निजामपुर गांव के लोगों  ने भौतिक और आर्थिक तरक्की तो बहुत कर ली, बैलगाड़ी युग से डि़जिटल युग मे आ गये लेकिन 20 सालपहले कि सामाजिक समस्या ज्यों कि त्यों बनी रही। इन्होने  सबकुछ किया पर इन 20 सालों मे अपने मानसिक रूप से बीमार समाज  का इलाज नही करवाया।

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आज डिजिटल युग मे भी हमने समाज के एक विशाल वर्ग पर बेसिर पैर की पाबंदियां महज इसलिये थोप रखीं हैं कि उनके साथ एक शब्द जुड़ा है दलित। बाकी सब चीजों मे हमारे समान होते हुये भी केवल दलित शब्द उस शोषित समुदाय को हमसे अलग कर देता है। उस दलित समाज के लिये सारे नियम सख्त हो जातें हैं, अनगिनत पाबंदियां स्वत: लग जाती हैं।  जिनको तोड़ना या न मानने के बुरे परिणाम होतें हैं जिनसे दलित समाज ही नही हमारे अधिकारों की रक्षा करने वाली पुलिस, प्रशासन और यहां तक कि सरकार भी डरती है।